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मुनाफ़ा।


इससे स्पष्ट है कि आबादी बढ़ने से देश का कल्याण नहीं होता। अनाज़ की रफ़्तनी विदेश को अधिक होने से उसका खप बढ़ता है। इससे अनाज महँगा बिकता है। पर इस महँगी के कारण काश्तकारों को कोई विशेष लाभ नहीं होता। अनाज महँगा होने और ज़मीन का लगान बढ़ने से काश्तकारों को बहुत ही कम मुनाफ़ा होता है। मुनाफ़ा कम होने से वे सञ्वय नहीं कर सकते। इससे खेती के काम में लगाई जाने वाली पूँजी कम होती जाती है। पूँजी की कमी से मज़दूरी का निर्ख़ भी कम हो जाता हैं। यहाँ तक कि बहुत से मज़दूरों को काम ही नहीं मिलता। इस दुरवस्था के कारण सम्पत्ति की उत्पत्ति कम होती है और सम्पति कम होने से देश में दरिद्रता बढ़ती है। इस समय, इस सम्बन्ध में, इस देश की स्थिति कैसी है, इसका विचार करना प्रत्येक विचारशील भारतवासी का कर्तव्य है।

इस परिच्छेद में यद्यपि विशेष करके कारख़ानेदारों के मुनाफ़े ही के विचार की आवश्यकता थीं, तथापि काश्तकारों के मुनाफ़े के विषय में भी हमने दो चार बातें लिखना आवश्यक समझा। क्योंकि जब मुनाफ़े का विचार हो रहा है तब देश की सम्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाले काश्तकारों के मुनाफ़े का भी विचार करना उचित है।


छठा परिच्छेद।

मज़दूरी।

सम्पत्ति का जो हिस्सा मेहनत करनेवालों को उनकी मेहनत के बदले दिया जाता है उसे उजरत, मज़दूरी, तनख्वाह या वेतन कहते हैं। उजरत रोज़ाना हो सकती है, हफ़्तेवार हो सकती है, माहवारी हो सकती है। इससे कमोबेश वक्त में भी मेहनती की मेहनत का बदला मिल सकता है। यदि एक महीने या इससे अधिक मुद्दत में मेहनत का बदला मिलता है तो उसे तनख्वाह, मुशाहरा था वेतन कहते हैं। और यदि इससे कम मुद्दत में मिलता है तो उसे उजरत या मज़दूरी कहते हैं। परन्तु "मज़दूरी" शब्द अधिक प्रचलित होने के कारण हमने इस परिच्छेद का नाम "मज़दूरी" ही रखना अधिक मुनासिब समझा। मेहनत से मतलब सिर्फ़ कुलियों से नहीं। मिस्त्री, कारीगर, मुहर्रिर, हिसाब किताब रखनेवाले अकौंटेंट, मैनेजर, इत्यादि सभी की गिनती मेहनत करनेवालों में हैं।