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मुनाफ़ा।

ऊपरी नहीं कर सकते। जी अधिक पूँजी लगाने की शक्ति रखते हैं उन्हीं का व्यवसाय निरस्थायी होता है। औरों के शीघ्रही अपना बौरिया-बँधना बाँधना पड़ता है। अतएव पहले जितनी पूँजी लगाकर लोग जितना मुनाफ़ा उठाते थे, अबाधघाणिज्य के प्रसाद से, अब उतनी पूँजी से उतना लाभ नहीं होता। इस अवस्था में व्यवसायियों को चाहिए कि कम्पनियाँ खड़ी करके अधिक पूँजी लगाकर व्यापार-व्यवसाय करें। तभी उनकी काफ़ी लाभ होगा और तभी उनका काम चलेगा।

व्यापार-व्यवसाय करनेवालों में बहुधा ऐसे भी लोग होते हैं जो ख़ास अपनी ही पूँजी लगाकर काम करते हैं। जिनके पास पूँजी कम होती है वे महाजनों से रुपया उधार लेते हैं। जो मुनाफ़ा उन्हें अपने व्यवसाय में होता है उसमें से महाजन का सूद और दूसरे ख़र्चे बाद देकर जो कुछ बचता है, उन्हें मिलता है।

कल्पना कीजिए कि किसी के साबुन बनाने का कारख़ाना खोलना है। इस काम के लिए उसके पास काफ़ी रुपया है। उसने किसी ज़मींदार से दस बीघे ज़मीन किराये पर ली। फिर वहाँ इमारत खड़ी करके साबुन बनाने की कलें लगाईं। कारख़ाने में सब तरह का काम करने के लिए यंजिनियर, मिस्त्री, मज़दूर, हिसाब किताब रखनेवाले मुक़र्रर किये और निगरानी का काम अपने ऊपर लिया। कारख़ाना चलने लगा और साबुन बन कर तैयार हुआ। उसकी बिक्री से जो रुपया आया उसमें से उसने वह सब रुपया निकाल लिया जो उसने कारख़ाने के मुलाज़िमों की तनख़ाह और जमीन के किराये बग़ैरह में ख़र्च किया था। बाक़ी जो बचा वह उसे मुनाफ़ा हुआ। इस मुनाफ़े में उसकी लगाई हुई पूँजी का सूद और ख़ुद उसकी निगरानी का बदला ही नहीं, किन्तु जोखिम का बदला भी शामिल समझना चाहिए। इस तरह के जितने कारख़ाने होते हैं उनका मैनेजर, अर्थात् निगरानी या बन्दोबस्त करनेवाला, यद्यपि अपने हाथ से कोई मोटा काम नहीं करता, तथापि वह अपने दिमाग़ से काम लेता है। वह कारख़ाने में बननेवाली चीज़ो की लागत का ख़याल रखता है। वह यह देखता है कि जो चीज़ें कारख़ाने में दरकार हैं वे कहाँ अच्छी और सस्ती मिलती हैं। वह ढूँढ ढूँढ कर अच्छे कारीगरों को नौकर रखता है। जहाँ और जिस समय वह अपने कारख़ाने के माल का खप देखता है वहीं और उसी समय वह