पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/१४५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२६
सम्पत्ति-शास्त्र।

जिस जमीन में आजकल खेती होती है वह पहले बहुत बुरी हालत में थी । वह खेती के योग्य न थी। कहाँ अङ्गल था, कहीं रेत था, कहीं कुछ, कहीं कुछ। बहुत म्पया पार श्रम पर्च करने के बाद उसे वह रूप प्राप्त हुआ है जिस रूप में हम उसे देखते हैं । यह खर्च पहले पहल बहुत पड़ता था, पोछे से कम । जैसे जैसे जमीन सुधरती गई, खर्च कम होता गया । गवर्नमेंट करती है कि शुरू शुरू में जमीन को उपजाऊ बनाने में जो सर्च पड़ा था वह प्रारही लोगों में किया था । उसका फल भी उन्हों ने और उनके वंशजों ने पा लिया । अब जो लोग उस जमीन पर काबिज़ है उनको यत्र ता कम पड़ता है, पर आमदनी अधिक होती है । अर्थात् आमदनी का अधिकांश और लोगों के परिश्रम और खर्च का फल है। आजकल वालों की कमाई का फल नहीं। इससे इस समय के ज़ौदार पार काश्तकार कृपो की सारी आमदनी पाने के मुस्तहक़ नहीं । खर्च वाद देकर यह सरकार को मिलनी चाहिए । इसी सिद्धान्त पर सरकार जमीन की मालगुजारी मजा से वसूल करती है । अर्थात् यह ज़मीन का लगान लेती है. जमीन की आमदनी पर कर' नहीं।

पर श्रीयुक्त महादेव गोविन्द रानडे कहते हैं कि सरकार का यह सिद्धान्त ग़लत है । यदि इस देश की जमीन आरम्भ से लेकर आजतक एकही कुटुम्ब के कब्जे में चली आती, अर्थात् शुरू शुरू में जो जिस जमीन का मालिक था उसी के कुटुम्बियों के कपड़ों में बह बनी रहती, तो कह सकते थे कि इन लोगों को अब पहले का जितना अम पार खर्च नहीं पड़ता । ये लॉग-इनके पूर्वज इस जमीन से बहुत कुछ लाभ उठा चुके । अब उतनाही लाभ वरावर उठाते रहने के ये मुस्तहक नहीं। क्योंकि यह सब लाम इनकी कमाई का फल नहीं । परन्तु यथार्थ में बात ऐसी नहीं है। जो ज़मीन इस समय आपके पास है वह आपके पहले न मालूम कितने आदमियों के कब्जे में रही होगी। पर हर आदमी जब उस जमीन पर काबिज़ हुआ होगा तब उस पर किये गये सारै बर्च और श्रम का बदला उसे देना पड़ा होगा । क्योंकि ज़मीन की कीमत कुछ कम तो होती नहीं, बढ़ती ही जाती है । जो आदमी अमान मोल लेता है वह बाजार भाव से उसकी पूरी क़ीमत देता है। उस कीमत में सब मेहनत और सब खर्च शामिल रहता है । अपव ऐसी ज़मीन से जो कुछ पैदा होता है वह उसकी लगाई हुई पूँजी का फल,