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सम्पत्ति-शास्त्र।

बढ़ना मानों उसको ग्रामदनो का बढ़ना है। जिस चीज़ की आमदनी बढ़ जाती है उसकी कदर ज़रूर कम हो जाती है । इस हिसाब से रुपये का फुती के साथ एक हाथ से दूसरे हाथ में जाना उसकी कदर को कम करना और दूसरी चीजों को कदर को बढ़ाना है। इसका उलटा यदि कहा जाय नो इस तरह कहा जा सकता है कि रुपये की कदर का बढ़ना उसकी संख्या, उसके हस्तान्तर होने की शक्ति और अन्यान्य चीज़ों को कीमत की कमो पर अवलम्बित रहता है

अतपय जिस देश में रुपयों की संन्या व्यापार-सम्बन्धी ज़रूरतों से कम हो जाय उस देश में इस कमी का यहो इलाज हो सकता कि याता रुपयों की संख्या बढ़ाई जाय या उनका हस्त-परिवर्तन फुरती से होने के लिए कोई नदवीर निकाली जाय । परन्तु जिस देश में रुपयों की संख्या जरूरत से अधिक हो जाय, प्रथचा या कदिए कि सब चीज़ों की कीमत बढ़ जाय, ता मया करना चाहिए ? इसका जचाय यही है कि म्पयों की आमदनी कम कर दी जाय । १८९४ ईसवी के पहले चांदी को कई एफ नई नई स्थानों का पता लगा और बहुन चांदी यहाँ पाने लगी। इधर सरकारी टकसाल सर्वसाधारण के लिए ग्युली थी। इसलिए लोग चाँदी ले लेकर बेहद रूपया दलवाने लगे । फल यह हुआ कि. इस दशा में, ज़रूरन से अधिक रुपया बन गया । इससे उसको कदर कम हो गई । यहाँ तक कि धीरे धीरे एक रुपये की कोमन सिर्फ १३ पेंस रद गई। सरकार को हानि होने लगी। क्योंकि सरकारी माल गुजारी से पेंशन वगैरद्द के लिए करोड़ों रुपये इगलिस्तान भेजना पड़ता है । इँगलिस्तान का सिमा सोने का है। जहां पहले एक पाँड के लिए सरकार को १० रुपये देने पड़ते थे वहाँ चांदी की दर कम हो जाने से १६ रुपये देने पड़े। फिर भला हानि क्यों न हों ? इसका इलाज सरकार ने यह किया कि हिन्दुस्तान में सर्वसाधारण के लिए टकसाल बन्द करके एक पौंड की फ़ीमत १५ रूपये मुकरर कर दी। इससे रुपये की आम- दनी भी रुक गई और उसकी कीमत भी स्थिर हो गई। अब सरकार सर्व साधारण के लिए रूपये नहीं ढालती। देश के लिए जितने रुपये की ज़रूरत होती है यह खुद ढालती है। इससे रुपये की आमदनी नहीं बढ़ पाती और एक रुपया १३ पंस की जगह १६ पेंस का हो गया है।