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पृथिवी-प्रदक्षिणा

मुश्किल इस कारण दरपेश आई कि उनका चमड़ा गोरा न था। वहाँ उन पर जो कुछ बीती उसे और उनके हृदय से जो उद्गार अपने देश-भाइयों के विषय में निकले उन्हें भी आप उन्हीं के मुख से सुन लीजिए―

“भोजनागार में गये तो जिस प्रकार भारत में चमारों से व्यवहार होता है वैसा ही मुझसे हुआ। एक कोने में मुझे जगह मिली जिसमें मैं किसी को छू न लूँ। पहले तो बड़ा क्रोध आया कि उठ कर चला जाऊँ। किन्तु फिर सोचा कि जब तक भारतवर्ष में एक भी मनुष्य के साथ ऐसा ही बर्ताव होता रहेगा तब तक मुझे क्या अधिकार है कि दूसरों से सर उठा कर बोलूँ। जैसा हम बोते हैं वैसा ही फल पावेंगे। हमने ऐसा न किया होता तो क्यों इस दशा को प्राप्त होते। यह हमारे ही पापों का फल है कि हम दास हैं। हम आज संसार में स्वतंत्र नहीं हैं। हमारी पीठ पर हाथ रखनेवाला कोई नहीं है। हमारे दुखों का सुननेवाला कोई नहीं है। हाँ, परमात्मा है। किन्तु उसे किस मुख से पुकारें। हमने भी तो दूसरों को दास-वृत्ति में रक्खा है। अब भी दासों से बढ़ कर घृणित व्यवहार अपने ही भाइयों से करते हैं।" पृष्ठ ८७

अमेरिका के विषय में गुप्त जी कहते हैं―

“इस देश में यद्यपि नाममात्र के लिए दासत्व का अन्त हो गया है किन्त रङ्गीन हबशी जाति के साथ यहाँ बड़ा अन्याय होता है। भारतवर्ष में तो तिल्ली फाड़नेवाले गोरों को १०, २० रुपया जुर्माना भी हो जाता है, यहाँ इतना भी नहीं। अभी उस दिन पढ़ा था कि एक दक्षिणी प्रान्त में किसी काले मनुष्य ने एक सफ़ेद मनुष्य की गाय चुरा ली । बस फिर क्या था, सफेद भूतों ने बेचारे काले मनुष्य को पकड़ लिया व उसकी स्त्री व बच्चों को भी एक