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पृथिवी-प्रदक्षिणा


अफीमचियों या गपोडशंखों की कल्पना की करतूत नहीं। इतने निर्भीक और इतने उदार सज्जन के हार्दिक उद्गारों की कुछ बानगी नीचे दी जाती है। देखिए, उससे कुछ शिक्षा मिलती है या नहीं।

भारतवासियों के लिए विदेशयात्रा कितनी ज़रूरी है, इस पर पर्य्यटक महाशय कहते हैं―

“जब से मैं बाहर आया हूँ तब से मुझे पद पद पर यह बात ज्ञात होती है कि भारत के विषय में संसार में नितान्त अन्धकार है। भारतं क्या है, उसका इतिहास क्या है, उसके काव्य, मूर्तियाँ, चित्र क्या हैं, उसमें शिल्प-विज्ञान व कला कितनी है, उसमें रसिकता, साहस, वीरता, उद्दण्डता कितनी है, इसका परिचय संसार को कुछ भी नहीं है। जो कुछ है भी वह स्वार्थियों-द्वारा विकृत रूप में ही दिया गया है। यह देखते हुए इसकी बड़ी आवश्यकता है कि हमारे देशवासी सभी देशों में नाना प्रकार से भ्रमण करें व देश के हर एक पहलू पर प्रकाश डालें। हे नवीन भारत! यदि तुम्हें संभ्य जगत् की पङक्ति में बैठना है तो संसार की भिन्न भिन्न भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करो। उनमें क्या है, उसे अपने देश की भाषाओं में लिखकर अपने देश भाइयों को बताओ और तुम्हारे घर में जो सम्पत्ति है उसे संसार के बाज़ारों में परखने को भेजो। इसके बिना काम नहीं चलेगा।

“देश के बाहर निकलने से अपनी भी आँखें खुलती हैं और दूसरों की भी। पर अभी तो हम पीनक लेते हुए बनावटी धर्म्म के गड्ढ़े में पड़े निर्वाण खोज रहे हैं। संसार की चिन्ता किसको है? भला हो प्लेग और अकाल का कि ये हमें जगा रहे हैं। इसी का नाम ईश्वरी कोड़ा है। यदि इसे भी खाकर हम न जागें तो ईश्वर ही मालिक है।