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समालोचना-समुच्चय


हों कि वहाँ से संस्कृत-भाषा के कितने प्राचीन ग्रन्थ कितनी ख़ूबी से सम्पादित होकर निकल रहे हैं।

रही शिक्षा-प्राप्ति की बात। सो इस विषय में तो हम इस पुस्तक को अद्वितीय ही समझते हैं। इसे पढ़ कर भी जिस अभागे के हृदय में अपनी मातृभाषा और अपनी मातृभूमि के विषय में 'भक्ति की धारा न सही, स्रोत का भी, प्रवाह न बह उठा उसे जीवन्मृत ही समझना चाहिए।

गुप्त जी ने अपनी इस पर्य्यटन-पुस्तक में, जगह जगह पर, अपने जो हृद्गत उद्गगार निकाले हैं वे सर्वथा अनमोल हैं। कहीं कहीं पर तो वे कलेजे को चीर कर बाहर निकल जाते हैं और सहृदय पाठक को अपनी दुर्गति, अकर्मण्यता और बेबसी पर रोना पड़ता है। हवाईद्वीप में बैठ कर वहाँ के होटल की किताब में, हिन्दी में, अपने भाव व्यक्त करनेवाले, पोर्ट-आर्थर के दर्शन करके भावभरी स्तुति के मिष अपना हृदय निकाल कर दिखाने वाले, निर्बलों और कर्तव्यपराङ्मुखों का उत्पीड़न देख कर ख़ून के आँसू बहाने वाले इस भारतीय भक्त के क्या एक भी उद्रगार ऐसे हैं जिनसे कुछ न कुछ शिक्षा न मिलती हो? इसे आप अतिरञ्जना या अत्युक्ति न समझिए। यह आलोचना कुछ लम्बी तो ज़रूर हो जायगी, पर, हम, अपनी उक्ति की यथार्थता के प्रमाण में, इस पुस्तक से कुछ ऐसे अवतरण नीचे देने जाते हैं जो हमारे कथन की पुष्टि करेंगे। गुप्त जी के विचार इतने परिष्कृत हैं और सचाई के वे इतने क़ायल मालूम होते हैं कि विषय चाहे सामाजिक हो, चाहे धार्म्मिक, चाहे और कोई, वे अपनी मच्ची राय, सो भी बहुत स्पष्ट शब्दों में, देते ज़रा भी नहीं हिचके। आर्य्यसमाज के अन्तर्मुक्त होने पर भी वे पुराणों के दूध-दही के समुद्रों के नाम सार्थक समझते हैं। अतएव पुराणों का संर्वाश उनकी दृष्टि मेंं