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समालोचना-समुच्चय


किसी वस्तु के गुणदोषों का यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। भारत अधःपतित है; योरप और अमेरिका समुन्नत। ऐसा क्यों है, यह बात विदेश-भ्रमण से बहुत अच्छी तरह जानी जा सकती है और हम अपने अधःपतन के कारणों को दूर करने का इलाज ढूँढ़ निकालने में बहुत कुछ समर्थ हो सकते हैं। इसी से इस समय विदेश-भ्रमण की और भी अधिक आवश्यकता है।

पर्य्यटनविषयक पुस्तकों में विशेष करके तीन गुण होनेक्षचाहिए। उनसे मनोरञ्जन होना चाहिए, ज्ञानवृद्धि होनी चाहिए, और कुछ शिक्षा भी मिलनी चाहिए। “पृथिवी-प्रदक्षिणा" में ये तीनों गुण विद्यमान हैं और बहुत अधिक मात्रा में विद्यमान हैं। सच तो यह है कि इस विषय की यह पहली ही पुस्तक हिन्दी में निकली है जिसकी गणना भ्रमण-विषयक अच्छी पुस्तकों में होनी चाहिए। इस विषय की और भी कुछ पुस्तकें हिन्दी में प्रकाशित हो चुकी हैं, पर वे इसके किसी भी अंश के मुकाबले में नहीं ठहर सकतीं। फिर इसकी भाषा इतनी सरल और शैली इतनी अच्छी है कि सभी तरह के पाठक पर्य्यटक का आशय सहज में समझ सकते और आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। पुस्तक के सम्पादक ने पर्य्यटक की निज की भाषा में संशोधन करके उसका परिष्कार किया है। यह न होता तो अच्छा था। क्योंकि गुप्त जी की भाषा में एक अदृष्ट-पूर्व मिठास है। उसका ढंग उनका निज का है। उसमें कहीं कहीं जो बनारसी बोली की पुट आ जाती है वह एक नया ही चमत्कार पैदा कर देती है।

अलौकिक, असम्भव और आश्चर्य्यजनक घटनाओं के वर्णन से परिपूर्ण उपन्यासों तथा अन्य पुस्तकों के अवलोकन से कुछ मनुष्यों को अत्यधिक आनन्द की प्राप्ति होती है। जब तक वे उनके पाठ में लीन रहते हैं तब तक उनकी नींद-भूख तक हर