पर कितने आँसू बहाये हैं; तुम्हारी कूप-मण्डूकता पर कितना विलाप किया है और तुम्हें जगाने के लिए कितनी गंभीर गर्जना की है। उसे पढ़ लेने से तुम्हें देशाटन की महिमा अच्छी तरह मालूम हो जायगी।
गुप्तजी की पुस्तक का आकार बड़ा है। ऊपर सुन्दर और मज़बूत जिल्द है। छपाई नितान्त नयनाभिराम और काग़ज़ मोटा तथा चिकना है। इतनी अच्छी छपी हुई पुस्तकें हिन्दी में हमने बहुत कम देखी हैं। पुस्तक सचित्र है। चित्र-संख्या २५८ है। उनमें से २१४ चित्र पूरे पृष्ठ पर छपे हैं। चित्रों में एक विशेषता और भी है। वह यह कि ३६ चित्र रङ्गीन हैं। इसके सिवा रङ्गीन नकशे भी ६ हैं। वे हैं―भूमण्डल, मिस्त्र, अमरीका, जापान, पोर्टआर्थर और चीन के। इन नक़शों में वह मार्ग भी चिह्नित है जिससे पर्य्यटक महोदय ने भिन्न भिन्न देशों में भ्रमण किया है। यों तो उपोद्घात, विषय-सूची, भूमिका और अनुक्रमणिका आदि मिला कर पुस्तक की पृष्ठ-संख्या कोई साड़े चार ही सौ है; परन्तु 'चित्रों की पृष्ठ-संख्या जोड़ देने से वह ७०० के लगभग पहुँच जाती है। पुस्तक की तैयारी में २२,५०० रुपये ख़र्च हुए हैं। इसी से एक कापी का मूल्य १५ रखना पड़ा है। इसकी १५०० कापियाँ छपी हैं। अतएव काशी का ज्ञान-मण्डल प्रेस इसे लागत के परते पर ही बेच रहा है; मुनाफे के लिए उसने ज़रा भी साँस नहीं रक्खी।
पुस्तक को लेखक ने अपनी पत्नी, श्रीमती भगवती देवी, को उपहार के तौर पर अर्पण किया है। आप अपनी वामाङ्गिनी की जानकारी के लिए अपना भ्रमण-वृत्तान्त प्रायः प्रतिदिन लिखते गये थे। इसी से पुस्तक को आपने उन्हें उपायनवत् प्रदान किया है।