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समालोचना-समुच्चय


थे? जिस समय तुम्हारे सैकड़ों धर्म्मधुरीण शास्त्री चीन में बैठे हुए धर्म्मचर्चा करते और ग्रन्थ-निर्म्माण के कार्य्य में लग्न रहते थे उस समय उनके चौके लगाने के लिए क्या तुम्हारी ही भूमि से चिकनी मिट्टी और गोबर जाता था? क्या उनके पीने के लिए पानी और खाने के लिए आमन्न भी बनजारों के बैलों पर लद कर यहीं से रवाना होता था? कुछ तो अपनी स्मरण-शक्ति से काम लो; कुछ तो अपने प्राचीन इतिहास के पन्ने उलटो; कुछ तो अपनी वर्तमान अधोगति के कारणों का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करो। छुवाछूत के पीछे पागल होने वाले न तो केरल के नम्बूदरी ब्राह्मणों के सदृश यहाँ, उस समय, ब्राह्मण ही थे और न जहाज़ पर गङ्गाजल लाद कर इँगलिस्तान जाने वाले महाराजा जयपुर के सदृश यहाँ महामहिम महीपाल ही थे। यह कुछ न था। इसीसे तो तुम्हारा राज्य दूसरे देशों पर भी था, इसीसे भिन्न देशवासी तुम्हें अपना गुरु समझते थे और इसी से तुम्हारी भूमि लक्ष्मी की लीला-भूमि हो रही थी।

दूर कर दो अब अपने अज्ञान, धर्म्मान्ध और अकर्म्मण्यता को। निकलो घर से बाहर। देखो तो संसार में कैसे कैसे परिवर्तन हो रहे हैं। देखो तो कितने अध:पतित देश समुन्नत हो गये। देखो तो कितनी क्रियाशील जातियाँ अपने पुराने वन्य भाव को छोड़ कर सभ्य और शिक्षित बन गई। इन परिवर्तनों के कारणों की खोज करो और तुम भी अपने दुर्भाग्य पर रोना छोड़ कर उन्हीं के सदृश अपनी उन्नति आप ही करने की चेष्टा में लग जाव। बिना देश―विदेश गये―बिना पर्य्यटन किये―तुम्हारी आँखें खुलने की नहीं। ज़रा काशी के रईस, बाबू शिवप्रसाद गुप्त, की पृथिवी- प्रदक्षिणा नामक पर्य्यटन-पुस्तक का अवलोकन ही कर डालो। देखो उसमें उन्होंने तुम्हें कितने उलाहने दिये हैं; तुम्हारी नादानी