गोपियों की भगवद्भक्ति
शरत्काल है। धरातल पर धूल का नाम नहीं। मार्ग रजोरहित है। नदियों का औद्धत्य जाता रहा है; वे कृश हो गई हैं। सरोवर और सरिताएँ निर्मल जल से परिपूर्ण हैं। जलाशयों में कमल खिल रहे हैं। भूमि-भाग काशांसुकों से शोभित हैं। धनोपवन हरे हरे लाल पल्लवों से आच्छादित हैं। आकाश स्वच्छ है; कहीं बादल का लेश नहीं। प्रकृति को इस प्रकार प्रफुल्लवदना देखकर एक दफे, रात के समय, श्रीकृष्ण को एक दिल्लगी सूझी-
दृष्ट्वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं
रमाननाभं नवकुङ्कमारुणम्।
वनञ्च तत्कोमलगोभिरञ्जितं।
जगौ कलं वामदृशां मनोहरम्॥
उस दिन शरत्पूर्णिमा थी। श्रीकृष्ण ने देखा, भगवान् निशानायक का बिम्ब अखण्ड-भाव से उदित है; वह अपनी सोलहों कलाओं से परिपूर्ण है। नवीन कुङ्कुम के समान उसका अरुणबिम्ब रमा के मुखमण्डल को भी मात कर रहा है। उसकी कोमल-किरणमाला वन में सर्वत्र फैली हुई है। ऐसे उद्दीपनकारी समय में उन्होंने अपनी मुरली की मधुर तान छेड़ दी। उसकी ध्वनि ने,