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गायकवाड़ की प्राच्य-पुस्तक-माला


ही के सदृश प्रत्येक सर्ग के अन्त में आपने भी एक एक श्लोक वैसा ही लिखा है। यथा―

श्रीमद्बागुलभूमिपालतिलकश्रीशाहनारायण-
स्फूर्जित्कीर्तिचरित्रचित्रितपदे राष्ट्रौढवंशाभिधे!
भव्ये दक्षिण दिग्भवेन कविना रुद्रण सृष्टे महा-
काव्येऽस्मिन्कृतवैरिवीरविजयः सर्गस्तु विंशोऽगमत्॥

इस प्रकार, केवल अन्तिम चरण में, कथानुसारी परिवर्तन करके आपने सब सर्गों के अन्त में यही श्लोक दिया है। सर्गों की संख्या २० है । श्रीहर्ष के काव्य की छाया भी रुद्र के काव्य में जगह जगह पाई जाती है। इससे मालूम होता है कि यह कवि श्रीहर्ष का भक्त था। नैषधवरित इसे खूब याद था। उसे यह बहुत पसन्द करता था । इसीसे उसका अनुसरण इसने किया है।

इस काव्य का सम्पादन अम्बर कृष्णमाचार्य नाम के एक विद्वान् ने किया है और इस की भूमिका सी०डी० दलाल, एम० ए०, महाशय ने, अंगरेज़ी में, लिखी है। भूमिका में कवि, काव्य, मयूरगिरि, नारायणशाह, प्रतापशाह आदि के सिवा उस समय के आवश्यक इतिहास और काव्य का सारांश भी दलाल महाशय ने दिया है। राठोड़ों के वंश का वर्णन, तत्कालीन राजनैतिक अवस्था तथा और भी अन्यान्य बातों का उल्लेख आपने किया है। इससे इस काव्य का महत्व बढ़ गया है और इसमें वर्णन की गई घटनायें समझने में बहुत सहायता मिलती है। यह काव्य यद्यपि ऐतिहासिक है तथापि इसमें कहीं कहीं कुछ प्रमाद भी है। उसका ज्ञान भूमिका पढ़ने से अच्छी तरह हो जाता है।

नारायणशाह और उसके पूर्वजों का वर्णन मुसलमानों के लिखे हुए इतिहास-प्रन्थों में भी मिलता है। इनका देश बागलाना