किसी समय भारत में अनन्त ग्रन्थरत्न थे। काल-प्रभाव और राज्यक्रान्ति आदि कारणों से उनका अधिकांश नष्ट हो गया। इससे भारत की जो हानि हुई है उसकी इयत्ता नहीं। अन्य हानियों की पूर्ति हो सकती है, पर इस तरह की हानि की पूर्ति सम्भव नहीं। लाखों ग्रंथ विदेश चले गये। तिस पर भी अभी, मालूम नहीं, कितना हस्तलिखित ग्रंथ-समुदाय प्राचीन पुस्तकालयों में कृमि-कीटों का खाद्य बन रहा है। इन ग्रंथ-रत्नों का कुछ कुछ पता कुछ समय से लगने लगा है। जब बम्बई से काव्य-माला का निकलना आरम्भ हुआ तब लोगों की आँखें सी खुल गईं। अनेक नई नई पुस्तकें देखने में आई। जिनका उल्लेख टीकाकारों की टीकाओं में ही मिलता था वे पढ़ने को मिलने लगीं। इसके बाद मदरास, माइसोर, ट्रावनकोर आदि से भी पुस्तक मालायें निकलीं। कुछ प्राचीन पुस्तके गवर्नमेंट ने, कुछ एशियाटिक सोसाइटी ने, कुछ अन्य देशों के विद्वानों ने भी प्रकाशित की। पर इतने से भी उनकी संख्या कम न हुई; दिन पर दिन बढ़ने सी लगी। नवीन नवीन ग्रन्थों के अस्तित्व का पता लगने लगा। तब मालूम हुआ कि अब भी भारत के प्राचीन ग्रन्थों में अपरिमेय ज्ञानराशि छिपी पड़ी है। इस राशि का उद्घाटन या जीर्णोद्धार करने के इरादे से बौद्धों, जैनों और कुछ अन्य सज्जनों ने भी प्रयत्न आरम्भ कर दिया। तांजोर, पाटन और जैसलमेर आदि के पुस्तकागारों को पुस्तकों की सूचियाँ तैयार हुई। इन सब पुस्तकों के प्रकाशन से भारत के पूर्व वैभव का जो पता लगेगा उससे हम लोगों का नत मस्तक कुछ तो अवश्य ही उन्नत हो जायगा।
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गायकवाड़ की प्राच्य-पुस्तक-माला
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