आयान्ति यान्ति च परे ऋतवः क्रमेण
सञ्जातमत्र ऋतुयुग्ममगत्वरन्तु।
वीरेण वीरधवलेन विना नितान्तं
वर्षा विलाचनयुगे हृदये निदाघः॥
और ऋतु तो यथाक्रम आती ही जाती रहती हैं, पर वीरधवल के बिना अब जो दो ऋतुएँ आ गई हैं सो कभी जाने ही वाली नहीं―नेत्रयुग्म में तो वर्षा सदा के लिये उपस्थित हो गई है और हृदय में सदा के लिये निदाघ।
यह वस्तुपाल की सूक्ति का उदाहरण हुआ। और कवियों ने उसके दानादि के विषय में क्या कहा है, इसके भी दो एक नमूने सुन लीजिए।
एक दफे वीरधवल ने वस्तुपाल को बहुत सा रुपया दिया। परन्तु अपने घर पहुँचने के पहले ही उसने उसे कवियों, पण्डितों और अन्य दानपात्रों को दे डाला। उसके रिक्तहस्त हो जाने पर एक कवि ने उसे यह श्लोक सुनाया-
श्रीमन्ति दृष्टा द्विजराजमेकं पद्मानि सङ्कोचमवाप्नुवन्ति।
अर्थात् एक ही द्विजराज (चन्द्रमा) को देख कर श्रीमान् (शोभाशाली) कमल सङ्कुचित हो जाते हैं। पर एक क्या एक लाख द्विजराजों (द्विजन्माओं) के आ जाने पर भी आपका पाणिपद्म विकसा ही बना रहता है। वह बन्द होता ही नहीं।
यह सुनकर वस्तुपाल ने सिर नीचा कर लिया। उसे लज्जा हुई कि इस समय पास कुछ भी नहीं; इस कवि को क्या दूँ? इससे वह अधोवदन होकर नीचे पृथ्वी की ओर देखने लगा। कवि उसकी चेष्टा से उसके हृदय की बात ताड़ गया। वह तत्काल ही फिर बोल उठा―