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गायकवाड़ की प्राच्य-पुस्तक-माला

अल्पप्रज्ञाप्रबोधादपि सपदि मया कल्पितेऽस्मिन्प्रबन्धे
भूयोभूयोऽपि यूयं जनयत नयनक्षेपतो दोषमोषम्॥

एक कवि ने इस की कविता की प्रशंसा इस प्रकार की है―

पीयूषादपि पेशलाः शशधरज्योत्स्नाकलापादपि
स्वच्छा नूतनचूतमञ्जरिभरादप्युल्लसत्सौरभाः।
वाग्देवीमुखसामसूक्तविशदोद्गारादपि प्राञ्जलाः
केषां न प्रथयन्ति चेतसि मुदः श्रीवस्तुपालोक्तयः॥

अर्थात् वस्तु-पाल की उक्तियाँ पीयूष से भी अधिक पेशल कलाधर की कलाओं से भी अधिक स्वच्छ, आममञ्जरी को सुगन्धि से भी अधिक सुगन्धिपूर्ण और सरस्वती के मुख से निकले हुए सामगान से भी अधिक प्राञ्जल हैं। इस दशा में कौन ऐसा है जिसके हृदय को वे मोद से मत्त न कर दें?

ऐसे लोकोत्तर कवि के इस महाकाव्य को एक प्रति पाटन के पुस्तक-भाण्डार में मिली। वह विक्रम-संवत् १४७७ की लिखी हुई है। उसी के आधार पर इस काव्य का सम्पादन हुआ है। सुन्दर, साफ और बड़े टाइप में, अच्छे काग़ज़ पर, यह छपा है। आरम्भ में वस्तुपाल और उसके पत्नी-युग्म की मूर्तियों का एक चित्र है। आबू के वस्तुपाल-मन्दिर से इनका चित्र प्राप्त किया गया है। पुस्तकारम्भ में एक गवेषणापूर्ण प्रस्तावना, अंगरेजी में, है और अन्त में कई परिशिष्ट हैं। उनमें वस्तुपाल-कृत एक स्तोत्र और कुछ सूक्तियाँ हैं। वस्तुपाल की कीर्ति और दान के विषय में जो कुछ लिख गया है उसमें से भी कुछ बातें तीन चार ग्रन्थों से उद्धृत की गई हैं। इन परिशिष्टों को पढ़ने से भोजप्रबन्ध का जैसा आनन्द मिलता और कौतूहल होता है। कुछ नमूने लीजिए। अपने स्वामी वीरधवल के मरने पर वस्तुपाल ने इस प्रकार दुःख-प्रकाशन किया―