दाशरथे तुमने जो कुछ फ़रमाया वह तुम्हारे और तुम्हारे आर्य्य-मुनियों के लिए मुबारक हो। तुम्हीं लोग उन मुनियों की पूजापाती करो। हम लोग तो वेदवृत्ति के अधिकारी ही नहीं। इसी से हम उसके विपरीत धर्म्म के अनुयायी बने हैं। हम तो द्विजों को खा जाते हैं, याज्ञिकों को मार डालते हैं और गाँँवों तथा नगरों को उजाड़ कर वहाँ भूत-प्रेतों को आबाद करते हैं। समझे!
ऊपर के दोनों श्लोकों में कविवर भट्टि ने, मुनियों और मुनि-द्रोहियों के विषय में, अपने हार्दिक भाव ख़ूब सफाई के साथ प्रकट कर दिये हैं।
छिपकर रामचन्द्र-द्वारा बालि का मारा जाना भी कवि को पसन्द नहीं आया। इस से उसने लिखा है कि उनके इस कृत्य के लिए मुनियों तक ने रामचन्द्र का धिक्कार किया―
धिग् दाशरथिमित्यूचुर्मुनयो वनवर्तिनः
कवि ने बालि के द्वारा तो, इस सम्बन्ध में, रामचन्द्र को बड़े ही निष्ठुर वचन सुनाये हैं―
मृषासि त्वं हविर्याजी राघव छद्मतापस:।
अन्यव्यासक्तघातित्वाद् ब्रह्मन्घांं पापसम्मितः॥
ताड़का-वध के सम्बन्ध में भी भट्टि कवि ने रावण के मुख से रामचन्द्र की भर्त्सना कराई है―
अघानि ताड़का येन लज्जाभयविभूषणा।
स्रीजने यदि तच्छाध्यं धिग् लोकं जुद्रमानसम्॥
इसके पहले जो छः सात श्लोक भट्टिकाव्य से उद्धृत किये गये उन सभी में व्याकरण के किसी न किसी विषय से सम्बन्ध