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से किया है-इतनी योग्यता से कि उन्होंने उस लेख में प्रयुक्त दलीलों की धजियाँ उड़ा दी हैं। सुना जाता है, उनका वह प्रतिवाद, उनकी किसी-संग्रह पुस्तक में, कहीं, अलग भी प्रकाशित किया गया है। यही कारण है जो हिन्दी-नवरत्न की समालोचना भी, इस संग्रह के अन्त में, रख देनी पड़ी। इससे यह लाभ होगा कि जहाँ पाठक प्रतिवादकर्ता महाशयों की योग्यता के ज्ञान से पुरस्कृत होंगे वहाँ, यदि वे इस संग्रह के अन्तिम लेख को पढ़ने का कष्ट उठावगे तो, उसके लेखक की अज्ञता या अल्पज्ञता और अयोग्यता या असमर्थता के ज्ञान से भी संस्कृत हुए बिना न रहेंगे।
दौलतपुर ( रायबरेली)। १४ जनवरी १९२८
महावीरप्रसाद द्विवेदी नपान