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समालोचना-समुच्चय

इसमें "कर्म्मणि लिट्" के उदाहरणों की धूम है। अब आप चौदहवें सर्ग के सातवें श्लोक में "कर्तरि लिट्" के प्रयोगों का जमघट देखिए―

जगर्जुर्जहृषुः शूरा रेजुस्तुष्टुविरे परैः।
बबन्धुरङ्गुलित्राणि सन्नेदुः परिनिर्य्ययु:॥

इस ऊपर के छोटे से अनुष्टुप् छन्द में सात क्रियापद आ गये हैं। इसमें सन्देह नहीं कि इस कवि को व्याकरण हस्तामलकवत् हो रहा था। चौदहवें सर्ग के सौ से अधिक श्लोकों में उसने इस लकार के न मालूम कितने प्रयोगों का उपयोग किया है।

एक ही साथ कई क्रियापदों का प्रयोग तीसरे सर्ग के ४४ वें श्लोक में नीचे देखिए―

वस्त्रानपानं शयनञ्च नाना-
कृत्वावकाशे रुचिसंप्रक्लप्तम्।
तान् प्रीतिमानाह मुनिस्ततः स्म
निवध्वमाध्वं पिबतात्तशेध्वम्॥

अन्य सभी अधिकारों के उदाहरण देने के लिए स्थान नहीं। अतएव, नमूने के तौर पर, कुछ ही और उदाहरण नीचे दिये जाते हैं―

छठे सर्ग के ९४ श्लोक में खश् प्रत्यय के प्रयोग देखिए―

सत्वमेजय सिंहाद्यान् स्तनन्धयसमत्विषौ।
कथं नाडिन्धमान् मार्गानागतौ विषमोपलान्॥

इसी में 'खश्' के तीन प्रयोग आ गये हैं। अब 'खश्' के साथी 'खच्' के कुछ प्रयोग देखिए। वे ऊपर उद्धृत श्लोक के आगे ही १०० नम्बर के श्लोक में विद्यमान हैं। यथा-