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भट्टिकाव्य

संस्कृत-व्याकरण में सामान्यभूत-कालिक क्रियाओं के रूप बहुत ही अटपटे हैं। उन्हें आयत्त करने में बेचारे छात्रों को बड़ी हैरानी उठानी पड़ती है। काव्यारम्भ करते ही भट्टि ने उन्हीं रूपों के ज्ञानार्णव के पार होने के लिए श्लोकरूपी जहाज़ न सही, नौकायें, निर्माण करने का कारखाना-सा खोल दिया। संस्कृत में 'भू' धातु सर्व―प्रधान है। भट्टि ने उसी में हाथ लगा कर―

अभून्नृपो दशरथ इत्युदाहृतः

इत्यादि श्लोक-द्वारा 'भू' का 'अभूत्' रूप दिखा दिया है। इसके आगे, दूसरे श्लोक में, तो उसने इस सामान्य भूत के रूपों की झड़ी सी लगा दी है। देखिए―

सोऽध्यैष्ट वेदांस्त्रिदशानयष्ट
पितृनातार्प्सीदममंस्त बन्धून्।
व्यजेष्ट षड्वर्गमरंस्त नीतौ
समूलघातं न्यवधीदरींश्च॥

इसमें भिन्न भिन्न प्रकार की छः सामान्य-भूतकालिक क्रियाओं के रूपों का समावेश है। इसके सिवा एक णमुल्-प्रत्ययान्त पद और "नश्छव्यप्रशान्" सूत्रोक्त सन्धि-विषय भी सन्निविष्ट है। ये सब उदाहरण अपने अपने प्रकरण में यदि छात्रों को हृदयङ्गम करा दिये जायँ तो कभी न भूलें।

दुसरे सर्ग में कवि परोक्ष-भूतकालिक क्रियाओं के पीछे पड़ गया है। उस सर्ग का ३९ वाँ श्लोक देखिए―

बलिर्बबन्धेजलधिर्ममन्थे
जह्रेऽमृतं दैत्यकुलं विजिग्ये।
कल्पान्तदुःस्था वसुधा तथोहे
येनैष भारोऽतिगुरुर्न यस्य॥