चित्राधिक्य होने के कारण मूल्य उसका ५६ है। नाम पुस्तक का है―Studies in Indian Painting―यह पुस्तक स्वयं हमने तो नहीं देखी; परन्तु अँगरेज़ी-अखबारों में इसकी जो संक्षिप्त समालोचनायें और परिचय निकले हैं वे यदि यथार्थ हैं और अतिरञ्जना से पूर्ण नहीं तो इसकी महत्ता में सन्देह नहीं।
मेहता महाशय की इस पुस्तक में ईसा की सातवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध तक की चित्रकला के नमूने और उनकी आलोचनायें हैं। आपने अनेक नये नये नमूनों और अनेक नई नई ख़ूबियों का उद्घाटन किया है। पुस्तक में ९ अध्याय या विभाग और कुल मिलाकर ६१ चित्रों का प्रदर्शन है। दक्षिण के पल्लववंशी नरेन्द्र महेन्द्रवर्मा (प्रथम) के समय के तथा गुजरात के मध्यकालीन भी कुछ दुष्प्राप्य चित्रों का विवरण देकर आपने जहाँगीर के समय के कई विख्यात चित्रकारों तक के चित्रों की आलोचना की है। मुगलों के समय की चित्रकारी का ह्रास होने पर अठारहवीं सदी के मध्य में हिन्दू शैली की जिस चित्रकला का उदय काश्मीर और कमायूँ से लेकर राजपूताने और बुन्देलखण्ड तक हुआ था उस पर भी मेहता महोदय ने अच्छा प्रकाश डाला है। हिन्दूपन से पूर्ण इस पिछली चित्रकारी की कई शाखायें थीं। जयपुरी और पहाड़ी आदि शाखायें उन्हीं के अन्तर्गत हैं। इन सब के विवरण और नमूने देकर मेहता महाशय ने उनकी विशेषतायें बताई हैं। बहुत पुराने समय के चित्र आपको दक्षिणी प्रान्तों और पश्चिमी गुजरात ही में अधिक मिले हैं। इसमें आश्चर्य की बात नहीं। जिस उत्तरी भारत में ग्यारहवीं सदी ही से आततायियों के आक्रमणों का आरम्भ हो गया था उसमें भला हिन्दुओं की कारीगरी और ललित कलाओं के अधिक चिह्न कैसे सुरक्षित रह सकते थे?