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समालोचना-समुच्चय


है और चित्रकार की कृति चक्षरिन्द्रियगम्य। एक से प्राप्त आनन्द का अनुभव कान के द्वारा होता है; दूसरे का आँख के द्वारा। पर तल्लीनता और आनन्दोन्मेप, जो आत्मा का धर्म्म है, दोनों की कृतियों से एक ही सा होता है।

कवि अपनी ही आत्मा को प्रसन्न करने के लिए अपना काम नहीं करते। तुलसीदास आदि भक्त कवियों को आप छोड़ दीजिए। चित्रकार भी अपनी कृति से अन्यों ही को अधिकतर आनन्दित करना चाहते हैं। ये लोकोत्तर पुण्य-पुरुष स्वार्थी नहीं होते। ये परार्थ को स्वार्थ से अधिक श्रेयस्कर समझते हैं। अतएव इनके ललित और कोमल कार्य्य-कलाप से जितने ही अधिक लोगों का मनोरञ्जन हो, समझना चाहिए कि ये अपनी कृति के उद्देश में उतने ही अधिक सफलकाम हुए। इस दशा में यह स्पष्ट है कि इनके कार्यों से आनन्द का यथेष्ट अनुभव वही कर सकते हैं जिनका हृदय इन्हीं के सदृश, किम्बहुना इनसे भी अधिक, सुसंस्कृत, कोमल और भावग्राही होता है। इन भावग्राही जनों के हृदय में सहृदयता का अंश ख़ूब अधिक होता है। बात यह है कि कवि और चित्रकार तो स्वयं ही जानते हैं कि उन्होंने अपनी अमुक कृति में अमुक भाव या भावों का विकास किया है। पर दर्शक या श्रोता इस बात को नहीं जानता। उसे तो अपनी प्रखर भावग्राहिणी शक्ति ही से उस भाव को ढूँढ़ निकालना पड़ता है। अतएव, इस दृष्टि से, कवि और चित्रकार की अपेक्षा सरसहृदय श्रोता या दर्शक विशेष प्रशंसनीय हैं। इसके कुछ उदाहरण लीजिए―

कालिदास ने अपने मेघदूत में एक मेघ के द्वारा यक्ष की प्रेयसी को सन्देश भिजवाया है। उस सन्देश का एक अंश है―