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समालोचना-समुच्चय

पुस्तक के २९२ पृष्ठ पर लेखकों ने कथाप्रसङ्ग-वर्णन की दो प्रणालियाँ बतलाई हैं---"एक तो गोसाई जी की भाँति दोहा चौपायों-वाली और दूसरी केशवदास की भाँति विविध छन्दोंवाली"। केशवदास को आप लोगों ने इस पिछली प्रथा का प्रचारक माना है। परन्तु, यदि सूरदास की तरह पदों में कोई कथा कहे तो क्या उस की गिनती किसी भी प्रणाली में न हो? अथवा रामकलेवा लिखनेवाले रामनाथ प्रधान की तरह यदि कोई न विविध छन्द ही लिखे और न तुलसीदास की भाँति दोहे-चौपाई ही, तो आप उसकी कविता को किस प्रणाली के अन्तर्गत समझे? क्या किसी के अन्तर्गत नहीं? रामनाथ ने जिस छन्द में रामकलेवा लिखा है वह तुलसीदास की चौपाई तो है नहीं। ख़ैर, यह तो एक अवान्तर बात हुई। उस अवतरण में जो विविध शब्द है वह सर्वथा शुद्ध है। पर शुद्धि-पत्र में वह अशुद्ध उल्लिखित हुआ है। उसकी जगह 'विविधि' को दी गई है! जो अशुद्ध नहीं उसकी शुद्धता के लिए तो इतना प्रयास, परन्तु इसी 'विविध' के ऊपर पाँच ही छः शब्द पहले चौपाइयों की जगह जो 'चौपायों' छप गया है उस पर आप लोगों का ध्यान ही नहीं गया।

पुस्तक के पृष्ठ ८९ पर आप लोगों ने लिखा है----

(१)'राजनैतिज्ञता कूट कूट कर भरी थी' (२) 'राजनैतिज्ञता तो यहाँ तक बढ़ी चढ़ी थी' (३)'राजनैतिज्ञता के मामले में ...... विचार नहीं करता था।

'नैतिज्ञता' और 'राजनैतिज्ञता' के और भी ऐसे ही अनेक प्रयोग आप लोगों ने किये हैं। मालूम नहीं, हिन्दी के पारदर्शी पण्डित इन प्रयोगों को कैसा समझेंगे। हम तो केवल इतना ही