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समालोचना-समुच्चय

फिर उनको युक्ति और तर्क की कसौटी पर कसता है। इसके अनन्तर वह अपना सिद्धान्त स्थिर करता है। तब, तदनुकूल, वह प्राज्ञा सुनाता है। अच्छे लेखकों को भी दो या तदधिक विषयों की तुलना करते समय उनमें से किसी एक को ऊँचा या नीचा बतलाने के पहले इसी प्रणाली का अवलम्बन करना चाहिए।

भाषा-दोष

इस लेख में हिन्दी-नवरत्न से जो अनेक अवतरण अब तक दिये जा जुके हैं वही इस बात का अन्दाज़ा करने के लिए काफ़ी हैं कि इस पुस्तक की भाषा कैसी होगी। जिन कवियों पर लेखकों ने निबन्ध लिखे हैं उनकी कविता में शिथिलता के होने या न होने का उन्होंने अनेक बार उल्लेख किया है। मालूम नहीं, इस शिथिलता से उनका क्या मतलब है। पर, यदि इससे उनका यह मतलब है कि रचना तुली हुई नहीं है--उसमें असंयत-भाव है--तो यह दोष इस पुस्तक में भी है और बहुत अधिक है। इसके कारण इस पुस्तक का महत्व नष्ट सा हो गया है। जो जिस दोष को जानता है वही यदि उसे करे तो बड़े आश्चर्य की बात है। सावधानत-पूर्वक लिखने से ऐसे दोष दूर हो सकते हैं। भाषा इसकी परिमार्जित नहीं। विचारों की व्यर्थ पुनरावृत्तियाँ भी इस पुस्तक में बहुत हैं। इस बात के दो एक उदाहरण भी ऊपर दिये जा चुके हैं। अनेक स्थलों की रचना व्याकरण-च्युत भी है। सम्भव है, तीन आदमियों की शिरकत इसकी भाषा के अधिकांश दोषों का कारण हो। अच्छे लेखकों की भाषा जैसी होनी चाहिए वैसी भाषा इस पुस्तक की नहीं। दो चार उदाहरण लीजिए---