इस प्रकार रो-धो कर जगद्धर-भट्ट ने अपना करुणा-क्रन्दन समाप्त किया। तदनन्तर उन्होंने दीनाक्रन्दन का आरम्भ करके अपनी दीनता दिखाने का उपक्रम किया। १३२ श्लोकों तक उन्होंने अपना यह क्रम जारी रक्खा। जब स्तोत्र समाप्त होने को आया तब आपने अपने क्रन्दन की अति कर दी। इस स्तोत्र के पिछले कुछ श्लोक, चुन चुन कर, नीचे दिये जाते हैं―
नाथ प्राथमिकं विवेकरहितं तिर्यग्वदस्तं वय-
स्तारुण्यं विहतं विराधितवधूविरम्भणारम्भणैः।
स्वामिन् सम्प्रति जर्जरस्य जरसा यावन्न धावन्नयं
मृत्युः कर्णमुपैति तावद्वशं पादाश्रितं पाहि माम्॥
नाथ, मैं अपनी दुर्गति का क्या हाल बयान करूँ। शैशवावस्था तो मेरी खेल-कूद में गई। उस वय में तो कार्य्याकार्य का कुछ भी ज्ञान मुझे न था। इस कारण पशु-पक्षियों के सदृश खाने, पीने और दौड़ने-धूपने में मैंने उसे खो दिया। उसके बाद यौवन आया। उस वय का नाश मैंने प्रणय-कुपित प्रेयसी नारियों को प्रसन्न करने―उन्हें मनाने―पथाने―में कर दिया। अब, इस समय, मैं जरावस्था को प्राप्त हो गया हूँ। शरीर मेरा जीर्ण हो गया है; अङ्ग-प्रत्यङ्ग शिथिल हो गये हैं। मौत दौड़ी चली आ रही है। अतएव, जब तक उसके आक्रमण की आवाज़ मेरे कान तक नहीं पहुँचती तभी तक मेरे रोग का इलाज हो सकता है। आपके पैरों पर पड़े हुए मुझ विवश और विह्वल को उसके आगमन के पहले ही आप बचा लीजिए। दौडिए। देर मत कीजिए।
आसीद्यावदखर्वगर्वकरणग्रामाभिरामाकृति-
स्तावन्मोहतमोहतेन न मया श्वभ्रं पुरः प्रेक्षितम्।
अद्याकस्मिकपातकातरमतिः कं प्रार्थये कं श्रये
किं शन्कोमि करोमि किं कुरु कृपामात्मद्रुहं माहि माम्।