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समालोचना-समुच्चय

उन्हें 'सर्वोत्कृष्ट कवि' मानते हैं। उनकी राय है कि विहारी 'बड़े ही श्रृङ्गारी' थे और 'उनके चित्त में ६० वर्ष की अवस्था के लगभग पहुँचे बिना शान्त रस का प्रादुर्भाव न हुआ होगा।' विहारी बड़े नामी कवि हो गये, इसमें सन्देह नहीं। उनकी कविता बड़ी सरस, भावभरी और ध्वनिपूर्ण है। परन्तु विचार इस बात का करना है कि एक मात्र सात सौ दोहे की सतसई लिखने के कारण विहारी को महाकवि और कविरत्न की पदवी दी जा सकती है या नहीं। यदि पुस्तककार महाकवि और कविरत्न की परिभाषा लिख देते तो इस बात का विचार करने में बहुत सुभीता होता। नहीं मालूम किन गुणों के कारण वे कवियों को महाकवि और कविरत्न की पदवी के योग्य समझते हैं। विहारी को उन्होंने महाकवि लिखा है। रत्न तो वे हैं ही, क्योंकि 'नवरत्न' में उन्हें स्थान मिला है।

'रत्न' नई उपाधि है। अतएव उसका लक्षण संस्कृत के ग्रन्थों में नहीं मिलता। परन्तु महाकाव्य का लक्षण मिलता है। दण्डी ने काव्यादर्श में 'सर्गबन्धो महाकाव्यमुच्यते---'---लिखा है। 'इतिहासकथोद्भूतं; चतुर्वर्गफलोपेतं; चतुरोदात्तनायकं; असंक्षिप्त लोकरञ्जक'---आदि महाकाव्य के और भी कितने ही विशेषणों का उन्होंने उल्लेख किया है। यदि ऐसे महाकाव्य के कर्ता ही को लेखक---महोदय महाकवि समझे और दण्डी के वचनों को मानें तो उनके विहारी, देव और मतिराम आदि तुरन्त ही महाकवि के प्रासन से खिसक पड़ें। परन्तु यदि इस लक्षण को वे असङ्गत समझें तो हिन्दी का जो बृहदितिहास वे लिख रहे हैं उसमें कृपा करके 'नवरत्न' और 'महाकवि' की परिभाषा ज़रूर लिख दें। इससे लोगों को मालूम हो जायगा कि किन गुणों के होने से कवि को महाकवि की और महाकवि को