पद्य उसमें हैं। उनकी तीसरी पुस्तक छन्दसार पिङ्गल है, जिसके आरम्भ के केवल दो ही चार पृष्ठ लेखकों के देखने में आये हैं। मतिराम की एक और भी पुस्तक का अभी हाल में पता लगा है; पर लेखकों के द्वारा मतिराम पर निबन्ध लिखे जाने के बाद। अतएव पूर्वोक्त दो पूरी पुस्तकों और तीसरी पुस्तक के कुछ ही पृष्ठों में अभिव्यक्त हुए कविकर्तव्य की बदौलत मतिराम महाकवि ही नहीं माने गये, किन्तु हिन्दी-कवियों में रत्न की उपाधि-योग्य भी वे समझे गये। लेखकों की राय में----'रसराज मतिराम का बहुत उत्तम ग्रन्थ है। नायका ( ? ) भेद के ग्रन्थों में इसका बहुत ऊँचा पद है'। जान पड़ता है, मतिराम के इसी ग्रन्थ-पारिजात पर मुग्ध होकर लेखक-मधुकरों ने मतिराम को कविरत्न बनाया है। यदि यही बात है तो कृष्ण-गीतावली की आलोचना करते समय, पृष्ठ ३२ पर, आप लोगों ने तुलसीदास के विषय में यह क्यों कहा कि---"इन्होंने नायक नायकाओं के घृणित प्रेम को छोड़ कर ऊँचे दर्जे के प्रेम का वर्णन किया है'। यदि नायक-नायिकाओं का प्रेम घृणित प्रेम है तो मतिराम के–--'केलि कै राति अघाने नहीं दिनहूँ में लला पनि घात लगाई'---इत्यादि पद्य भी घृणित प्रेम-पूर्ण हैं या नहीं? यदि हैं तो फिर ये कैसे महाकवि और कैसे कविरत्न।
मतिराम की 'बहुत अच्छी' उपमाओं का लेखकों ने एक यह नमूना दिया है---
पिय आयो नव बाल तन बाढयो हरष बिलास।
प्रथम बारि बूँदन उठै ज्यों बसुमती सुबास।।
परन्तु हमारी प्रार्थना है कि यह उपमा मतिराम की उपज नहीं। रघुवंश के तृतीय सर्ग के तृतीय श्लोक---
तदाननं मृत्सुरभि क्षितीश्वरो रहस्युपाघ्राय न तृप्तिमाययौ।
करीव सित्त पृषतैः पयोमुचां शुचिव्यपाये धनराजिपल्बलम्॥