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समालोचना-समुच्चय

लिखने वालों को समझ बूझ कर और खूब छानबीन करके अपने विचार प्रकट करने चाहिए।

लेखकों का कथन है कि विद्वानों की सम्मति में तुलसीदास 'संस्कृत के अच्छे ज्ञाता न थे और यह बात विशेषणों के अधिक प्रयोग एवं एक स्थान पर व्याकरण की एक अशुद्धि आ जाने से ठीक प्रतीत होती है'। परन्तु आपने उस एक अशुद्धि को नहीं बतलाया। आपकी ऐसी ऐसी त्रुटियों को देख कर दुःख होता है। उस एक अशुद्धि को बतला देने में कौन बड़ा परिश्रम था। लोगों को मालूम तो हो जाता कि वह कौन सी अशद्धि है जिसे विद्वान् अशुद्धि मानते हैं और जो उनकी राय में तुलसीदास के अच्छे संस्कृतज्ञ न होने का प्रमाण है। विशेषणों का अधिक प्रयोग भी यदि अच्छी संस्कृत न जानने का प्रमाण हो सकेगा तो बाण कवि को संस्कृत से बिलकुल ही अनभिज्ञ मानना पड़ेगा, क्योंकि इस कधि की कादम्बरी में विशेषणों का अत्यधिक बाहुल्य है। लेखकों की सम्मति के अनुसार तुलसीदास ने संस्कृत-व्याकरण-सम्बन्धिनी एक भूल की है। परन्तु नागरी-प्रचारिणी सभा के सम्पादित रामचरितमानस में सात आठ अशुद्धियों का उल्लेख है। यथा---( १ ) 'विज्ञानधामावुभौ', ( २ ) 'सद्धर्मवर्मा', ( ३ ) 'केकी-कण्ठाभनीलं, ( ४ ) 'पाणौ नाराचचापं,' ( ५ ) 'मनभृङ्गसङ्गिनौ,' ( ६ ) 'कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं,' ( ७ ) 'कारुणीक कलकञ्जलोचनं,। इन सब को रामायण के सम्पादकों ने---"संस्कृत-व्याकरण से अशुद्ध" बतलाया है। 'नमामीशमीशान निर्वाणरूपं' आदि स्तुति को तो उन्होंने–-"संस्कृत-व्याकरणानुसार बहुत ही अशुद्ध" कहा है। वे सब स्थल अशुद्ध हैं या नहीं, इसका विचार संस्कृत के अच्छे वैयाकरण ही कर सकते हैं। परन्तु, कुछ भी हो, नागरीप्रचारिणी सभा के सदस्यों ने स्पष्टतापूर्वक कह तो दिया कि