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समालोछना-समुच्चय

कोई संस्कृतज्ञ विद्वान् अपनी सम्मति प्रकट करता तो बहुत अच्छा होता।

कृष्णगीतावली को आप लोगों ने 'बड़ा ही विशद' ग्रन्थ बतलाया है। पर किस आधार या प्रमाण पर आपने इसे तुलसीदास-कृत निश्चित किया, यह नहीं लिखा। तुलसीदास ने तो प्रायः रामचरित ही का गान किया है। अतएव कुछ प्रमाण देना था कि यह तुलसीदास ही की रचना है और किसी दूसरे की नहीं; और इसकी कविता तुलसीदास की अन्यान्य कविता से। कहाँ तक मिलती-जुलती है।

आप कहते हैं---"रामचन्द्र जी ने अयोध्या लौटते समय पहले प्रयाग और अयोध्या का दर्शन करके तब त्रिवेणी जी में स्नान किया इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि विमान ऊंचा उठने के कारण प्रयाग से अयोध्या देख पड़ना असम्भव नहीं"। इस पर हमारा निवेदन है कि उस जमाने में गीधों तक की दृष्टि 'अपार' थी। सैकड़ों योजन दूर की चीज़ें वे देख सकते थे। रामचन्द्र जी ने प्रयाग से १८ मील दूर फैज़ाबाद देख लिया तो सचमुच ही क्या आश्चर्य! विज्ञानवेत्ताओं को कुछ अाश्चर्य हो तो हो सकता है, औरों को नहीं। कवि और कवि-कर्म के ज्ञाता ऐसी बातों पर आश्चर्य नहीं करते। मालूम नहीं, लेखकों ने इस बात पर क्यों जोर दिया। हनूमान् जी एक पर्वत-शिखर उखाड़ कर लङ्का को उड़ गये; भरतजी उस शिखर समेत उन्हें अपने बाण पर बिठला कर लङ्का भेज देने को तैयार हुए; दशरथ के द्वार पर ऐसी ऐसी भीड़ें हुई कि पहाड़ भी यदि वहाँ पड़ता तो पिस कर 'रज' हो जाता। यह भी तो सब तुलसीदास जी ने लिखा है। कवियों की सृष्टि में भी क्या सर्वत्र सम्भवनीयता ढूँढ़ी जाती है?