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समालोचना-समुच्चय

जो पुर गाँऊँ बसहिँ मग माहीं। तिनहिँ नागसुर-नगर सिहाहीं॥

केहि सुकृती केहि घरी बसाये। धन्य पुन्यमय परम सुहाये॥

जहँ जहँ रामचरन चलि जाहीं। तेहि समान अमरावति नाहीं॥

परसि राम-पद-पदुम-परागा। मानति भूरि भूमि निज भागा॥

इनके विषय में अब लेखकों की राय सुनिए---

"नम्बर तीन पर जो चार चौपाई ( चौपाइयाँ।? ) उद्धृत की हुई हैं उनमें जितना साहित्य का सार कूट कूट कर भरा है उतना शायद संसार-सागर ( ? ) के ( की ? ) किसी भाषा के किसी पद्य में कहीं भी न पाया जायगा। जहाँ तक हम लोगों ने कविता देखी या सुनी है हमने इन पंक्तियों का सा स्वाद क्या अँग्रेज़ी क्या फ़ारसी क्या हिन्दी क्या उर्दू क्या संस्कृत, किसी भी भाषा में कहीं नहीं पाया"।

इन सम्मतियों के सम्बन्ध में हमें इतना ही कहना है कि किसी इतिहासकार या प्रतिष्ठित लेखक को ऐसी अर्गलारहित बातें लिखना और ऐसी अत्युक्तियाँ अपनी लेखनी से निकालना शोभा नहीं देता। संसार अनन्त, काल अनन्त, भाषायें अनन्त। मनुष्य की उम्र थोड़ी। इस दशा में सारे संसार की सारी भाषाओं के सारे साहित्य का कितना ज्ञान मनुष्य को हो सकता है, यह पाठक ही समझ देखें। किसी एक भाषा के साहित्य का सर्वाङ्गीण परिचय होना दुःसाध्य है; फिर सारी भाषाओं का! लेखक क्या इस बात का दावा कर सकते हैं कि अंगरेज़ी, फारसी और संस्कृत-भाषाओं के भी सारे काव्य उन्होंने देख डाले हैं? यदि नहीं, तो उनको ऐसी भुवनव्यापिनी अत्युक्ति न कहनी चाहिए। उन्होंने अपनी दो एक पूक्ति उक्तियों की सीमा को---'शायद', 'जानकारी' और 'जहाँ तक हम लोगों ने कविता देखी या सुनी है'---