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समालोचना-समुच्चय

अधिक। अर्थ पर ध्यान न देकर शब्दों का अनिर्बन्धता-पूर्वक प्रयोग करने से प्रबन्ध में विश्रृड़्खलता आ जाती है। यदि कोई कहे कि अमुक कवि का अमुक काव्य सर्वोत्तम है। और, फिर, कुछ दूर आगे चल कर, वही उस कवि के किसी और काव्य के विषय में भी कहने लगे कि वह भी सर्वोत्तम है, या उसकी बराबरी का काव्य किसी भाषा में है ही नहीं, तो उसकी कौन सी बात मानी जाय---पहली या दूसरी? अथवा, केवल दो चार भाषाओं का जाननेवाला कोई विद्वान् यदि यह कहे कि अमुक ग्रन्थकार के अमुक ग्रन्थ की समता इस दुनिया की किसी भाषा का कोई ग्रन्थ नहीं कर सकता तो उसकी इस उक्ति या सम्मति को कोई किस तरह विश्वसनीय या मान्य समझेगा। इस तरह की बातें किसी इतिहासकार के ग्रन्थ में यदि पाई जायँ तो उसके इतिहास का महत्व कम हुए बिना नहीं रह सकता। इतिहास-लेखक की भाषा तुली हुई होनी चाहिए। उसे बेतुकी बातें न हाँकनी चाहिए। अतिशयोक्तियाँ लिखना इतिहासकार का काम नहीं। उसे चाहिए कि वह प्रत्येक शब्द, वाक्य और वाक्यांश के अर्थ को अच्छी तरह समझ कर उसका प्रयोग करे। यह भी परमोत्तम, वह भी परमोत्तम, वह भी सर्वोत्तम---इस तरह की भाषा उसे न लिखनी चाहिए। खेद की बात है, इस पुस्तक के लेखकों ने अनेक स्थलों में शब्दार्थ का ठीक ठीक विचार नहीं किया। वे हिन्दी का इतिहास लिख रहे हैं और हिन्दी-नवरत्न का इतिहास से घनिष्ठ सम्बन्ध बतलाते हैं। अतएव उनकी भाषा में ऐसे दोषों का होना दुःख की बात है।

जब किसी वस्तु के सर्वेंश का ज्ञान हो जाता है---जब उसके प्रत्येक अवयव तक के पूर्ण ज्ञान से हृदय लबालब भर जाता है और वह ज्ञान स्पष्टतापूर्वक एक निश्चित रूप में अनुभूत होने लगता है---तभी वह शब्दों द्वारा स्पष्टतापूर्वक औरों पर प्रकट