और देव को उन्होंने रक्खा है; दूसरी में बिहारी, भूषण और केशव को और तीसरी में मतिराम, चन्द और हरिश्चन्द्र को। पहली त्रयी के तीनों कवियों की योग्यता उन्होंने एक सी ठहराई है; किसी को किसी से रत्ती भर भी न्यूनाधिक नहीं समझा। दूसरी और तीसरी त्रयी के कवियों की योग्यता या महत्ता उसी क्रम से उन्होंने न्यूनाधिक निश्चित की है जिस क्रम से उनके नाम उन्होंने दिये हैं। इस श्रेणी और त्रयी-विभाग ने इस विषय को और भी अधिक जटिल कर दिया है। अब, यदि, कोई और विद्वान् देव की पुस्तकों को विचारपूर्वक पढ़ कर यह निश्चय करे कि उनका दरजा बाबू हरिश्चन्द्र से भी नीचे है तो उसके और प्रस्तुत लेखकों के निश्चय की जाँच किस तरह की जाय और दोनों पक्षों में से बात किस की मानी जाय?
हिन्दी-नवरत्न के लेखकों को चाहिए था कि पहले वे रत्नश्रेणी के कवियों का लक्षण लिखते। वे दिखलाते कि कौन कौन बातें होने से किसी कवि की गणना रत्न-कवियों में हो सकती है। फिर, कवि-रत्नों की कविता-दीप्ति की भिन्न भिन्न प्रभाओं की मात्रा निर्दिष्ट करते; जिससे यह जाना जा सकता कि कितनी प्रभा होने से बृहत्, मध्य और लघु-त्रयी में उन कवियों को स्थान दिया जा सकता है। यदि वे ऐसा करते तो उनके बतलाये हुए लक्षणों की जाँच करने में सुभीता होता---तो लोग इस बात की परीक्षा कर सकते कि जिन गुणों के होने से लेखकों ने कवि को कविरत्न की पदवी के योग्य समझा है वे गुण वैसे ही हैं या नहीं; और वे प्रस्तुत कवियों में पाये भी जाते हैं या नहीं। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। अतएव जो लोग उनके इस श्रेणी और त्रयी-विभाग को बिना परीक्षा ही के, आँख बन्द कर, मान लेना चाहेंगे वही मान सकेंगे।