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जगद्धर-भट्ट का दीनाक्रन्दन


कुसुमाञ्जलि के अन्त में इन स्तोत्रों की सरसता के विषय में जो कुछ कहा है वह अक्षरशः सत्य है। उनका कथन है―

इमां घनश्रेणिमिवोन्मुखः शिखी
चकोरकः कार्तिकचन्द्रिकामिव।
रथाङ्गनामा तरणेरिव त्विषं
स्तवावलीं वीक्ष्य न कः प्रमोदते॥

वर्षाकाला न मेघमाला को देख कर, आकाश की ओर उद्ग्रीव हुआ मयूर आनन्द से जैसे पुलकित हो उठता है; कार्तिक के महीने में पूर्ण चन्द्र की चन्द्रिका के अवलोकन से चकोर पक्षी जैसे प्रमोदमत्त हो उठता है; प्रातःकाल सूर्य्य की प्रभा के दर्शन करके चक्रवाक का चित्त जैसे आनन्द-मग्न हो उठता है―वैसे ही मेरी इस स्तवावली का पाठ करके ऐसा कौन सचेतन जन होगा जो इसके अलौकिक रस और सौन्दर्य पर मुग्ध न हो जाय?

मनस्विनीनामिव साचि वीक्षितं
स्तनन्धयानामिव मुग्धजल्पितम्।
अवश्यमासां मधु सूक्तिवीरुधांं
मनीषिणां मानसमार्द्रयिष्यति॥

मानिनी कुल-कामिनियों के कुटिल कटाक्ष जिस तरह कामुकों के हृदय को आर्द्र कर देते हैं और शिशुओं के मधुर वचन जिस तरह मनुष्यों के हृदय को हिला देते हैं उसी तरह मेरी इन सुन्दर उक्तिरूपिणी लताओं के फूलों का मधु, अर्थात् रसायन, भी सहृदय जनों के अन्तःकरण को अवश्य ही आर्द्र किये बिना न रहेगा।

बहुत ठीक। जगद्धर-भट्ट के प्रयुक्त "अवश्य" शब्द को तो देखिए। उन्हें विश्वास था कि उनको सूक्तियाँ सरस-हृदयों के हृदय पर असर किये बिना न रहेंगी। उनकी यह भावना सोलहो आने