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समालोचना-समुच्चय
जगद्धर-भट्ट का दीनाक्रन्दन
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काश्मीर के महाकवि जगद्धर भट्ट कृत स्तुतिक़ुसुमाञ्जलि बड़ी ही भव्य पुस्तक है। इस कुसुमाञ्जलि में ३८ स्तोत्र हैं। उन सब की श्लोक-संख्या १,४०० के ऊपर है। किसी स्तोत्र का विस्तार बड़ा है, किसी का कम। कुछ स्तोत्रों में तो सौ सौ डेढ़ डेढ सौ श्लोक हैं। जगद्धर महाकवि थे, परन्तु उन्होंने अपनी कवित्व-शक्ति का उपयोग केवल शिव-स्तुति करने में किया; और किसी विषय पर उन्होंने कविता नहीं की। यह बात उनको इस पुस्तक के अन्त की उक्तियों से स्पष्ट मालूम होती है। उन्होंने वाग्देवी को सम्बोधन करके कहा है कि तू भीत और त्रस्त हो रही होगी कि और कवियों के सदृश कहीं यह भी छोटे छोटे नरेशों और ग्रामपतियों की मिथ्या प्रशंसा करके मुझे और भी अधिक कलुषित न करे। तू अपने इस डर को छोड़ दे। आनन्द से प्रसन्न-वदन हो जा। देख, मैंने तेरा प्रयोग शिवस्तुति में करके तुझे कृतार्थ कर दिया।

संस्कृत-भाषा में स्तुति-विषयक साहित्य बहुत बड़ा है। सैकड़ों नहीं, हज़ारों स्तोत्र, भिन्न भिन्न देवों की स्तुति में, पाये जाते हैं। परन्तु जो रस, जो भाव और जो उक्तिवैलक्षण्य जगद्धर-भट्ट की कविता में है वह हमें तो कहीं भी अन्यत्र नहीं मिला। इनकी कविता का बार बार पाठ करने पर भी जी नहीं ऊबता। यही मन में आता है कि सदा ही उसका पाठ करते रहें। एकान्त में आँखें बन्द करके भक्ति-भाव पूर्वक इनकी स्तुतियों का पाठ करने से जिस आनन्द की प्राप्ति होती है उसका अन्दाज़ा सहृदय भावुक ही कर सकते हैं। यह सम्भव ही नहीं कि पाठक सहृदय हो और उसके नेत्रों से आँसू न टपकने लगें। जगद्धर ने स्तुति-