ग्रन्थों के उत्पादकों को बहुदर्शी योगी मानेंगे वे उसे ज़रूर ही सच समझेंगे। औरों की बात वही जानें। वे इस तर्क-प्रणाली को यदि अखण्डनीय न समझे तो आश्चर्य नहीं।
इसके आगे शास्त्री जी ने आयुर्वेद की उत्पत्ति, रोग का अधिष्ठान, रोगों की अनन्तता, रोग का त्रैकालिक ज्ञान, रोगों के मूलस्रोत आदि का निरूपण किया है। साथ ही, मौका मिलते ही, आप एलोपैथी और होम्योपैथी पर निष्ठुर आक्रमण भी करते गये है, यथा---"जिसे देखिये वही पाँच रुपये का बक्स मँगाकर डाक्टर बना बैठा है। x x x किसी दफ्तर में नौकरी भी कर लीजिये और इलाज भी करते जाइये। कोई काठ कबाड़ की दूकान भी खोल लीजिये और डाक्टर भी बनते जाइये। जूते भी गाँठते जाइये और दुर्गापाठ भी करते जाइये। न कूट पीस की दिक्कत न घोट छान की किल्लत x x x आप सिर्फ बूँद टपकाते जाइये। बस इलाज ख़त्म। जलचिकित्सा, रश्मि-चिकित्सा आदि की चर्चा हम आगे चल कर करेंगे"।
हमारी मन्द बुद्धि तो यह कहती है कि शहर शहर और गाँव गाँव में न तो पण्डित शालग्राम शास्त्री ही मिल सकते हैं और न अभी "मृत्युञ्जय" औषधालय ही खुल सकते हैं। अतएव यदि और किसी कारण से नहीं तो दयापरवश होकर ही शास्त्री जी इन बूँद टपकानेवाले डाक्टरों को जमे रहने दें। जनता को उनसे भूले-भटके ही सही, कुछ लाभ कभी तो हो ही जाता है। एलोपैथों और जल-चिकित्सकों आदि के विषय में भी मेरी यही प्रार्थना है।
इसी तरह आपने ऐलोपैथी को भी आड़े हाथों लिया है। उस पर तो आपकी बड़ी ही कड़ी फटकार पड़ी है। यूनानी, मिसरानी