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समालोचना-समुच्चय

भाषण करके आपने अपनी सूचनाओं की उपयोगिता और आवश्यकता सिद्ध की। इस पर बहस छिड़ गई। बहुत लोगों ने अापके प्रस्ताव का समर्थन किया; परन्तु कुछ ने उसका विरोध भी किया। इन पिछली कोटि के मेम्बरों में एक दिग्गज विरोधी निकल आये। आप पक्के, पूरे और नामी डाक्टर हैं। साथ ही आप फौजी मेजर-पदवी से भी विभूषित हैं। नाम आपका है--मेजर डाक्टर रञ्जीतसिंह और शुभ स्थान आपका है---त्रिवेणीतट पर बसा हुआ प्राचीन प्रयाग। आपने ठाकुर साहेब के प्रस्ताव का घोर विरोध किया और आयुर्वेदिक चिकित्सा में कितने ही दोषों की उद्भावना की। उसे आपने अवैज्ञानिक बताया। डाक्टरी विद्या की कितनी ही शाखाओं का नाम लेकर आपने कहा कि इन शाखाओं के सम्बन्ध में आयुर्वेद-विषयक एक भी पुस्तक कोई दिखा दे तो हम जानें। इस विषय में आपने कौंसिल के मेंम्बरों को चुनौती तक दे डाली। डाक्टरी के जो सिद्धान्त आज सच माने जाते हैं वे जब पच्चीस ही वर्ष बाद ग़लत साबित हो जाते हैं तब दो हज़ार वर्ष की पुरानी वैद्यविद्या के पुराने सिद्धान्त इस समय कैसे कारगर माने जा सकते हैं। इस तरह और भी कितने ही दोषों का आरोपण आपने स्वदेशी चिकित्सा-प्रणाली पर कर के कल की।

मेजर साहब के आक्षेपों का उत्तर उन्हें कौंसिल ही में मिल गया। ठाकुर मशालसिंह और ठाकुर नाऩकसिंह ने उनकी दलीलों की धज्जियाँ उड़ा दी। मशालसिंह जी ने तो अपने एक कुटुम्बी का उल्लेख करके बताया कि बड़े बड़े पास-शुदह डाक्टर जब उसे नीरोग न कर सके तब हज़ारों वर्ष की पुरानी पद्धति से चिकित्सा करनेवाले एक वैद्य ही ने उसे प्राणदान दिया। ख़ैर, बहस का नतीजा यह हुआ कि वह प्रस्ताव "पास" हो गया,