समालोचना-समुच्चय नहीं देखना चाहते। कुछ डाक्टरों के अविवेक और अभिमान की तो सीमा ही नहीं। आयुर्वेद-चिकित्सा का बिलकुल ही ज्ञान न रख कर, अथवा थोड़ा ही ज्ञान प्राप्त करके, वे उसे अवैज्ञानिक, पिछड़ी हुई, यहाँ तक कि मूर्खो और असभ्यों की प्रचलित की हुई तक कहने का साहस कर बैठते हैं। संयुक्तप्रांत के कौंसिल के एक अधिवेशन में, कोई तीन वर्ष हुए, एक ऐसा ही दृश्य उपस्थित हुआ था। एक डाक्टर साहब आयुर्वेद पर बड़े ही निष्ठुर, पर बहुत कुछ निःसार, अाक्रमण कर बैठे थे।
मान लीजिए कि देशी वैद्यक, विज्ञान की भित्ति पर स्थित नहीं। मान लीजिए कि दो हजार वर्षों से उसने कुछ भी उन्नति नहीं की। मान लीजिए कि उस में एक्सरेज़, थर्मामीटर, स्टेथेस्कोप, खुर्दबीन प्रादि यंत्रों का नाम तक नहीं। अच्छा, न सही। पर इन त्रुटियों के होने पर भी क्या उसमें रोगनिवारण की कुछ भी शक्ति नहीं? इस बात की परीक्षा के लिए तो वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आश्रय की ज़रूरत भी नहीं। वैद्यक-चिकित्सा से रोग दूर होता है या नहीं, यह तो प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। आप शहरों और बड़े बड़े क़स्बों की मृत्यु-संख्या का मिलान देहात की मृत्यु-संख्या से कर लीजिए। देहाती आदमी वैद्यों की दवा करते हैं, शहरवाले डाक्टरों की। पर आपको मृत्यु-संख्या में विशेष अन्तर न मिलेगा। सच तो यह है कि कितने ही रोगों और कितने ही रोगियों की चिकित्सा में वैद्य जितना सफल होते हैं, डाक्टर नहीं होते। यह बात भी आँख से देख कर जानी जा सकती है। इसके लिए भी किसी यन्त्र, औज़ार या पैमाने को ज़रूरत नहीं। अच्छा दो उदाहरण लीजिए। इन उदाहरणों का सम्बन्ध ख़द मुझ से है---
मेरी वयस्क भाञ्जी के गुर्दे में कुछ ख़राबी हो गई। पेशाब में बहुत अलबूम्यन जाने लगा। बदन फूल गया। कमज़ोरी बेहद