केशवदास को आश्रय ज़रूर था। पर कौन कह सकता है कि यदि उन्हें आश्रय न होता तो वे रामचन्द्रिका आदि ग्रन्थ न बना सकते? पुराने जमाने में जो अच्छे विद्वान् अथवा अच्छे कवि थे वे रूखा-सूखा खाकर और मोटा कपड़ा पहन कर ही ख़ुश रहते थे। साधारण अवस्था में रहने से उन्हें कोई कष्ट न होता था--अथवा यों कहिए कि उसे वे कष्ट समझते ही न थे। उस स्थिति में रह कर भी वे विद्याव्यासड़्ग में लगे रहते थे और नये नये काव्य और नये नये ग्रंथ बनाया करते थे। ख़ुद हमारे जन्मग्राम के पास कई विद्वान् ऐसे हो गये हैं जो सदा अपने ही घर पर रहे और पूजा-पाठ करके बसर करते रहे। पर कई ग्रन्थ वे ऐसे छोड़ गये हैं जिनके समकक्ष ग्रन्थ राजाश्रय में रहनेवाले विद्वानों से भी नहीं बन सके। अतएव यह कहना कि राजाश्रय के कारण अकबर के समय में हिन्दी की उन्नति हुई, ठीक नहीं। हाँ, यदि उस समय के राजे, महाराजे और धनवान् आदमी कवियों और पण्डितों को अपने यहाँ रख कर ग्रन्थ-निर्माण कराते और उन ग्रन्थों के कारण हिन्दी की उन्नति होती तो राजाश्रय-कारण ठीक माना जाता। अकबर के समय में केशवदास को ज़रूर राजाश्रय था। पर उनकी पुस्तकें, सूरसागर और तुलसीदास की पुस्तकावली के मुक़ाबले में, महत्व में भी कम हैं और परिमाण में भी कम। अतएव केशवदास के सम्बन्ध में, राजाश्रय ही के कारण, यदि हिन्दी की उन्नति मानी जाय तो भी यह उन्नति, कुल उन्नति के सामने कोई १/४ से अधिक न होगी। पर, याद रहे, केशव का आदर न अकबर ही ने किया, न उसके दरबारियों ही ने।
रहे क़ादिर, रसखानि और नरहरि आदि कवि। सो उनके ग्रन्थ प्रसिद्ध नहीं। अतएव यदि उनका राजाश्रित होना मान भी लिया जाय तो उसके कारण हिन्दी की उन्नति नहीं मानी जा