कर दिया; परन्तु अपने अभीष्ट पथ का परित्याग नहीं किया। इसीमें इन्होंने अपना कल्याण समझा और इनको यह समझ सर्वथा ठीक भी थी। तुलसीदास ने कहा भी है―
तज्यो पिता प्रह्लाद विभीषण बन्धु भरत महतारी।
बलि गुरु ब्रज बनितन पति त्यागो भे जग मङ्गलकारी॥
प्रेमी को पूरा अधिकार है कि वह अपने उपास्य देव का आराधन जिस भाव से चाहे करे। ज्ञानयोग और राजयोग आदि के द्वारा भगवान् का सान्निध्य या मोक्ष प्राप्त कर लेना साधारण साधकों का काम नहीं। वह मार्ग बहुत बहुत कठिन है। पर प्रेम और भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखसाध्य है। आप नारद-भक्तिसूत्र देखिए। उनमें इस मार्ग की कितनी महिमा गाई गई है। गोपियों के लिए योगसाधन अथवा ज्ञान-प्राप्ति करना असम्भव नहीं तो महाकठिन अवश्य था। उनके लिए वही साधन उपयुक्त था जिसका आश्रय उन्होंने लिया। अतएव ये कल्याणी गोपिकायें ज्ञानियों और योगियों के भी वन्दन और प्रणमन के पात्र हैं।
ब्रज छोड़ आने पर एक बार श्रीकृष्ण ने इन गोपियों का समाचार मँगाना चाहा। एतदर्थ उन्होंने उद्धव को चुना। उन्हीं उद्धव को जिन्होंने श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में बेढब वेदान्त बूँ का है और महाभारत में राजनीति पर बड़े बड़े लेक्चर झाड़े हैं। आप अपनी ज्ञान-गरिमा की गठरी बाँध कर व्रज पहुँचे और लगे गोपियों को ज्ञानोपदेश करने। परन्तु वहाँ गोपियों ने उन्हें इतनी कड़ी फटकार बताई कि उनका ज्ञान-सागर बिलकुल ही सूख गया। गोपियों की प्रेम की आंधी में उनका ज्ञानयोग यहाँ तक उड़ गया कि वे उलटा उन्हीं "व्यभिचारदुष्ट" वनचरी नारियों के चेले हो गये। उन्हें अन्त में भगवान् से प्रार्थना करनी पड़ी―