स्वच्छन्दता से भक्ति-रस-पूर्ण कविता बनाते जैसे कि शान्ति के समय में उन्होंने किया। इससे देश में शान्ति का होना उनके कविता-विकास का कारण नहीं।
केशवदास अलबत्ते गृहस्थ थे। वे संसार-त्यागी न थे। पर उनके समय में बुँदेलखण्ड में यथेष्ट शान्ति कहाँ थी? दंगे, फ़साद, लड़ाइयाँ होती ही रहीं और वे अपने रसिक-समाज में, मधुप बन कर, कविता-कलिकाओं का रस लेते ही रहे। उन्हें काम था अपनी कविता, अपने इन्द्रजीत और अपने इन्द्रजीत की प्रवीण राय से। समग्र भारत में क़त्ल होता रहे उन्हें क्या परवा? अगर देश में अशान्ति होने से कविता बन्द हो सकती तो देश पर मुसलमानों की चढ़ाइयाँ होती रहने और लूट-पाट तथा मार-काट में लिप्त रहनेवाले शिवाजी के समय में रह कर भूषण कवि कभी अच्छी कविता न बना सकते। कवियों को कविता की जिस समय स्फूर्ति होती है उस समय देश की अशान्ति का उन पर बहुत ही कम असर होता है। देश की तो बात ही नहीं, 'यदि उनके कुटुम्ब पर, नहीं, ख़ुद उन पर भी कोई संकट पड़े, तो भी उनकी कविता का विकास रुक नहीं सकता। जो कवि अपनी सौतेली माँ से पीड़ित होकर घर से निकल भागा और निकलते ही एक तेली को सामने आते देख कर यह कह उठा कि---
इक तेली कहा करिहै तिहिको
सौ-तेली बसें जिहि के घर माँही।
उसे उस समय थोड़ा दुःख न था। देश में अशान्ति होने से कवियों की प्रतिभा पर जितना असर पड़ सकता है ख़ुद अपने ही ऊपर आपत्ति पाने से उससे तो अधिक ही असर पड़ता है।