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समालोचना-समुच्चय

रीडरों में एक सी रक्खी जा सके। अतएव कविता अपनी अपनी अलग ही रही। अब उर्दू, नहीं हिन्दुस्तानी, भाषा के प्रेमियों की बदौलत ब्राकेटबन्दी करने की ठहरी है। देखिए, यह ढोंग भी कब तक चलता है।

ब्राकेटबन्दी के मामले से छुट्टी पाकर डाक्टर सुन्दरलाल ने दूसरा प्रस्ताव उपस्थित किया। उन्होंने कहा, एक काम और कीजिए। तीसरे और चौथे दरजे की रीडरों में छः छः सबक़ बढ़ा दीजिए। फ़ारसी लिपि की रीडरों में उर्दू के अख़बारों और पुस्तकों से छः मज़मून चुन कर रक्खे जायँ और देवनागरी की पुस्तकों में हिन्दी के अख़बारों और पुस्तकों से। उर्दू-प्रेमी मेम्बरों ने इसका भी बड़े ज़ोरो शोर से प्रतिवाद किया। लप्टन और फ्रीमैंटल साहब भी उन्हीं की तरफ हुए। परन्तु राम राम करके, बहुमत के आधार पर, किसी तरह यह प्रस्ताव भी पास हो गया! ख़ैर, जो कुछ हुआ वही ग़नीमत है। धन्यबाद है डाक्टर सुन्दरलाल को जिन्होंने किसी तरह छः सबक तो हिन्दी-उर्दू में जुदा जुदा लिखने की सम्मति प्राप्त कर ली। यही बहुत है। सव्र्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध त्यजति पण्डितः।

अब इन रीडरों की भाषा के सम्बन्ध में यह रहा---

( १ ) पहले और दूसरे दरजे की रीडरों की भाषा एक रही।

( २ ) तीसरे और चौथे दरजे की रीडरों में ब्राकेटबन्दी की ठहरी। अन्त में हिन्दी और उर्दू के छः छः सबक़, हिन्दी या उर्दू के अख़बारों और पुस्तकों से, देने की राय रही। हिन्दी का लगाव संस्कृत से है और उर्दू का फारसी और अरबी से। जो लड़के प्राइमरी मदरसों में पढ़ते हैं उनमें से कितने ही अँगरेज़ी स्कूलों और कालेजों में जाते हैं। वहाँ उनको संस्कृत और फारसी-अरबी से बहुधा काम पड़ता है। यदि वे आगे न भी पढ़ें तो भी हिन्दी