हिन्दी का इस प्रकार पक्ष-समर्थन करने के लिए हिन्दी बोलने वालों को बाबू गङ्गाप्रसाद वर्मा का कृतज्ञ होना चाहिए। परन्तु उनके तर्क और उनकी प्रबल युक्तियों ने काम न दिया। नैनीताल की कमिटी ने उनका यह प्रस्ताव पास न किया। तब डाक्टर सुन्दरलाल ने दो प्रस्ताव किये। उन्होंने कहा---बहुत अच्छा। तो एक काम कीजिए। तीसरी और चौथी दफा की रीडरों में संस्कृत और फारसी के कुछ ऐसे भी शब्द रहने दीजिए जो भाषा की उन्नति की दृष्टि से आवश्यक हों। नागरी लिपि में छपी हुई रीडरों में जहाँ आवश्यकता समझी जाय वहाँ और ही शब्द रक्खे जायँ, परन्तु उन शब्दों के आगे ब्राकेट में उनका दूसरा रूप भी लिख दिया जाय जो फारसी लिपि में छपी हुई पुस्तकों में प्रयुक्त हुआ हो। इसी तरह फारसी लिपि की रीडरों में यदि कोई ऐसा शब्द रखना मुनासिब समझा जाय जो उर्दू भाषा के अनुकूल हो तो वह रख दिया जाय और ब्राकेट में उसका पर्यायवाची हिन्दी- शब्द लिख दिया जाय। इसके सिवा भाषा में और कोई भेद न रक्खा जाय। दोनों तरह की रीडरों के पाठ भी एक ही से हो और विषय भी। इस पर भी बड़ी बड़ी आपत्तियाँ उठीं। मिस्टर स्ट्रट फील्ड और मुसलमान-मेम्बरों ने इसके ख़िलाफ राय दी। परन्तु बहुमत से यह प्रस्ताव, किसी तरह, पास हो गया। यदि गवर्नमेंट ने भी इस बात को मंजूर कर लिया तो जिस छापेख़ाने में ये रीडरें छपेंगी उसे मन दो मन ब्राकेट मँगवा कर पहले ही से रख लेना पड़ेगा। हमारे मुसलमान भाइयों की बदौलत यह ख़र्च भी हमें बरदाश्त करना पड़ेगा। परन्तु, विश्वास रखिए, इस ब्राकेटबन्दी से बहुत दिन तक काम चलनेवाला नहीं। जब पहले पहल रीडरों की भाषा एक की गई और उनके लिए कविता ढूँढ़ी जाने लगी तब ढूँढ़ने वालों को ऐसी कविता ही न मिली जो दोनों
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रीडरों में ब्राकेटबन्दी