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रीडरों में ब्राकेटबन्दी

उड़ा दिया जाय। स्कूलों की किताबों की लिपियाँ जुदा जुदा चाहे भले ही हों, पर भाषा उनकी उर्दू ही रहे। इस भाषा को गवर्नमेंट की तरह, वे भी 'हिन्दुस्तानी' कहते हैं। सा अभी तक इन प्रान्तों में हिन्दी और उर्दू, ये दो ही भाषायें थीं; अब एक तीसरी भाषा भी उन दोनों के बीच में घुस पड़ना चाहती है। नैनीताल की जिस कमिटी का उल्लेख ऊपर हुआ है उसके मेम्बरों की संख्या १२ थी। उनमें ६ अँगरेज़, ४ हिन्दू और २ मुसलमान थे। हिन्दुओं में थे---पण्डित सुन्दरलाल, बाबू गङ्गाप्रसाद वर्मा, बाबू घासीराम और बाबू कुञ्जविहारीलाल। मुसलमानों में थे---पीरपुर के राजा श्रीयुत अबूजफ़र और बरेली के श्रीयुत असग़रअली ख़ाँ। कमिटी में जब भाषा-विषयक विचार उपस्थित हुआ तब पूर्वोक्त मुसलमान मेम्बरों ने बड़ा रौरा मचाया। उन्होंने कहा---गवर्नमेंट ने एक बार नहीं, कई बार निश्चित रूप से यह कह दिया है कि रीडरों की भाषा में हिन्दी-उर्दू का भेद न रहना चाहिए। उनकी भाषा रोज़मर्रह की वही बोलचाल की भाषा होनी चाहिए जिसे इन प्रान्तों के पढे लिखे लोग बोलते हैं। ऐसे ही तर्काभास के बल पर उन्होंने इस विषय पर विचार किया जाना ही अनुचित समझा। उन्होंने यहाँ तक कहा कि गवर्नमेंट ने तो इस पर हम लोगों को विचार करने की प्राज्ञा ही नहीं दी। अतएव इस विषय पर कुछ कहना सुनना मानो गवर्नमेंट की आज्ञा के बाहर जाना होगा। अब इस 'आज्ञा' का भी अल्प इतिहास सुन लीजिए---

वर्तमान रीडरों की भाषा अदि के सम्बन्ध में जब सब तरफ़ से शिकायतें आने लगी तब गवर्नमेंट ने, १९१० ई० में, एक कमिटी बना दी। उस कमिटी से कहा गया कि वह इस बात पर विचार करे कि प्राइमरी मदरसों की रीडरें कैसी होनी चाहिए और उनकी भाषा किस तरह की होनी चाहिए।