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समालोचना-समुच्चय

तुर्की तक के अपरिचित शब्द रहते हैं और हिन्दी में संस्कृत के। बाल-चाल की सीधी सादी भाषा---चाहे वह फारसी लिपि में लिखी जाय, चाहे देवनागरी लिपि में---परस्पर बहुत भेद नहीं रखती। परन्तु जो रीडरें मदरसों में पढ़ाई जाती हैं उनकी भाषा में उत्तरोत्तर नये नये और कठिनतर शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। क्योंकि बिना ऐसा किये भाषा-ज्ञान की वृद्धि नहीं हो सकती। इस दशा में यदि रीडरों की भाषा एक ही रहेगी तो लड़के हिन्दी और उर्दू, दोनों ही, भाषाओं का यथेष्ट ज्ञान न प्राप्त कर सकेगें। उच्च अर्थात् साहित्य की उर्दू का ज्ञान बढ़ाने की इच्छा से यदि फारसी-अरबी शब्दों का अधिक प्रयोग किया जायगा तो नागरी लिपि में शिक्षा पाने वाले लड़कों के हिन्दी-भाषा-ज्ञान की वृद्धि में बाधा आवेगी। इसी तरह यदि संस्कृत के कठिन शब्द काम में लाये जायँगे तो फारसी लिपि में शिक्षा पाने वाले लड़कों के उर्दू भाषा-ज्ञान की वृद्धि न होगी। यह इतनी मोटी बात है कि सहज ही में सब की समझ में आ सकती है। और प्रान्तों की गवर्नमेंट इसे खूब समझती है। इसीलिए मध्यप्रदेश में हिन्दी और उर्दू की रीडरें अलग अलग हैं। जिस पञ्जाब में हिन्दी का प्रचार उर्दू की अपेक्षा कम है उसकी गवर्नमेंट ने भी इन दोनों भाषाओं को जुदा ही जुदा रक्खा है।

परन्तु दुःख की बात है, इस भेद-भाव को यहाँ की गवर्नमेंट ने न स्वीकार किया। नतीजा यह हुआ है कि वर्तमान रीडरों की भाषा न अच्छी हिन्दी ही है और न अच्छी उर्दू ही। उर्दू के ज्ञाता अलग चिल्ला रहे हैं कि हमारी भाषा की हत्या की जा रही है, हिन्दी के अलग। तिस पर भी कुछ मुसलमान सज्जन इस कुप्रबन्ध ही का सुप्रबन्ध समझते हैं। आनरेबुल बाबू गङ्गाप्रसाद वर्मा के मत में उनकी आन्तरिक इच्छा यह मालूम होती है कि हिन्दी का नाम ही