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समालोचना-समुच्चय
सवैया
आफ़त के परकाले हैं काले ये
गेसू निराले अजीबो ग़रीब हैं।
गोश तक आये, बढ़े फिर दोश तक,
ताकमर आ कर पाये नसीब हैं॥
हैं रामानन्द दो चन्द ये मार से
हाय किसी के न होते हबीब हैं।
आशिक़ हाय सँभल कर बैठ
क़यामत शामत दोनों करीब हैं॥२९॥
आवो गले मिल फाग मचावें
मोहर्रम टाल दो ये शबरात है।
शम्शतबरेज़ ने खाल खिँचाई
न मैं मनसूर जो सूली की घात है॥
आज अज़ाब करे सो सबाब है
यह रामानन्द बड़ी करामात है।
चोली कसे लसे गोली से नैन ये
भोली सी सूरत होली की रात है॥९५॥
है दिल बीच ग़ुबार भरा क्यों
निगाह भी नीची गड़ी रहती है।
हाय हँसी तो फँसी किसी रोज़
ख़याल में ग़र्क़ पड़ी रहती है।
जो रामानन्द घटा उल्फत को
नज़र बदली सी अड़ी रहती है।
रात दिन ऐसी कड़ी चश्मों से
बड़ी अश्कों की झड़ी रहती है॥९६॥