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गोपियों की भगवद्भक्ति


इन वनवासिनी नारियों के कृष्ण-परमात्माविषयक अलौकिक भावों की प्रशंसा करके उन पर लौकिक लाञ्छन का भी आरोप करना कहाँ तक सङ्गत हो सकता है, इसका निर्णय यदि कोई ऋषि-मुनि ही करे तो वह सर्वमान्य हो सकता है। हमारी प्रार्थना या निवेदन को तो पाठक हमारा प्रलाप-मात्र समझें। हाँ, एक बात को याद रक्खें। व्यभिचारी शब्द के वि+अभि+चर को ध्यान में रख कर उसका धात्वर्थ न करें; लोक में उसका जो अर्थ समझा जाता है वही करें।

पुराणकारों ने श्रीकृष्ण को सर्वेश्वर, सर्वसाक्षी, सर्वान्तर्यामी, परमात्मा जब मान लिया तब भक्तों, प्रणयियों और दास्यभाव से प्रणेदित जनों के लिए क्या उन्होंने कुछ ऐसे भी नियम कर दिये हैं कि तुम इसी भाव से अपने उपास्य या इष्टदेव की भावना या भक्ति करो? जहाँ तक हम जानते हैं, ऐसा तो कोई नियम नहीं। जो भाव जिसे अच्छा लगता है उसी भाव से वह ईश्वर की अर्चना करता है। कोई उन्हें सखी समझता है, कोई उन्हें स्वामी समझता है, कोई उन्हें बालक समझता है। यहाँ तक कि किसी किसी ने शत्रु-भाव से भी उनकी उपासना की है। इस दशा में यदि गोपियों ने श्रीकृष्ण को पति-भाव से भजा तो उन पर कलङ्क का आरोप क्यों? या तो कृष्ण को यः कश्चित् साधारण मनुष्य समझिए या गोपियों पर वैसा आरोप करना छोड़िए। दोनों बातें साथ साथ नहीं हो सकतीं। यदि श्रीकृष्ण परमात्मा थे और गोपियों ने उन्हें पति-भाव से ग्रहण किया तो वे सर्वथा निर्दोष ही नहीं, मङ्गलमूर्ति समझी जाने योग्य और समस्त संसार की दृष्टि में पूजनीय हो चुकीं। आप श्रीमद्भागवत को सरसरी ही दृष्टि से पढ़िए। आप देखेंगे कि गोपियों ने अपने इष्टदेव को जहाँ प्रिय, प्रियतम, अङ्ग, सखा इत्यादि शब्दों से सम्बोधन किया है वहाँ