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समालोचना-समुच्चय

उर्दू-शतक

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हिन्दी-भाषा के एक बड़े भारी छन्दः-शास्त्री का मत है कि उनके बनाये हुए छन्दोग्रन्थ में यदि सब लोग पारङ्गत हो जायँ तो भारतवर्ष में गाँव गाँव, गली गली, कवियों की वैसी ही बहुलता हो जाय जैसे नदियों में कंकड़ों की और काशी में शङ्करों की बहुलता है। कहने की ज़रूरत नहीं, यह मत बिल्कुक ही निस्सार है। छन्दों के रूप जान लेने, "यमनसभलागः शिखरिणी" घोखने, अथवा "वरा सा ध्री श्री स्त्री न हस वसुधा किम्बद लगा" करने से कोई कवि नहीं हो सकता। प्रस्तार-पारिजात पढ़ने और छन्दोर्णव पिङ्गल रटने से कवित्व शक्ति नहीं उत्पन्न हो सकती। छन्दः-शास्त्र कवि को छन्दों का लक्षणमात्र बतलाता है। वह छन्दोरचना की रीति मात्र का प्रदर्शक है। बस। कवि होने के लिए अनेक बातें दरकार होती हैं। सौभाग्य से जिसे वे प्राप्त हो जाती हैं वह लाखों में कहीं एक, कवि की पदवी को पहुँच सकता है। हमने हिन्दी और संस्कृत के, न मालूम, कितने छन्दोग्रन्थों की सैर कर डाली। यहाँ तक कि छन्दों किंवा वृत्तों के समालोचनरूपी, क्षेमेन्द्र आदिकृत, अनेक ग्रन्थ भी पढ़ डाले। पर कवि न हुए। कविता के नाम से पद्य-रचना करना एक बात है, कवि होना दूसरी बात है।

इसी तरह किसी किसी का ख़याल है कि हिन्दी में वैज्ञानिक डिक्शनरी हो जाने से वैज्ञानिक ग्रन्थ गली गली मारे मारे फिरेंगे। हम कहते हैं, यह कल्पना भी ग़लत है। इस तरह की डिक्शनरियों से अंगरेज़ी-भाषा के वैज्ञानिक ग्रन्थों का अनुवाद करने में सिर्फ कुछ सहायता मिल सकती है। और कुछ नहीं। जब किसी भाषा