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समालोचना-समुच्चय

हैं उनके लिए तो यह है ही नहीं, पर जो इन बातों को नहीं मानते वे, इस बीसवीं शताब्दी में, ऐसे युक्तिवाद पर कैसे विश्वास कर सकते हैं? रहा दूसरा लाभ; सो लड़के भी इससे कोई विशेष लाभ नहीं उठा सकते। कारण यह कि पुस्तक के प्रथमार्ध में एक तो निरी संस्कृत ही भरी है, और जो थोड़ी बहुत हिन्दी है उसकी भाषा इतनी क्लिष्ट, अशुद्ध और मुहावरे के विरुद्ध है, तथा उसके विचार इतना बे-सिलसिले हैं, कि बालकों के लिए उसका समझना प्रायः असम्भव है। रही वर्णमाला की सूची, सो उसमें कोई विशेषता नहीं। ऐसी बहुत सी प्राइमरें बन गई हैं, जिनके द्वारा लड़के अक्षरों को इस पुस्तक की अपेक्षा कहीं अधिक सरलता, सुगमता और मनबहलाव के साथ सीख सकते हैं।

साधारण दृष्टि से पुस्तक को आद्योपान्त पढ़ जाने पर लोग यही समझेंगे कि इसमें जितनी बातें लिखी हैं उन्हें लेखक ने अपनी ही बुद्धि के बल से लिखा है। अथवा यों कहिए कि इसके पहले किसी मनुष्य के हृदय में ऊँकार की ऐसी अलौकिक महिमा का ज्ञान कभी नहीं उत्पन्न हुआ। यदि हुआ भी हो तो उसे उसने क़लमबन्द नहीं किया। अर्थात् पण्डित श्रीनिवास जी ही पहले मनुष्य हैं जिन्हें यह ज्ञान उत्पन्न हुआ कि देवनागरी आदि समस्त लिपियाँ ऊँकार ही से उत्पन्न हुई हैं। पर यह बात नहीं। इसके पहले भी ग्वालियर-निवासी श्रीयुक्त रामराव कृष्ण जटार ऊँकार की महिमा प्रकाशित कर चुके हैं। उन्होंने अव्यक्त-बोध नाम की, मराठी भाषा में, एक पुस्तक लिखी है। उस में उन्होंने, १८६६ ईसवी में, वही बातें लिखी थीं जिन्हें अब बारह वर्ष पीछे इस पस्तक के कर्ता ने लिखा है। जान पड़ता है, यह पुस्तक अव्यक्त-बोध के तीसरे प्रकरण ( २९-४४ पृष्ठ ) के आधार पर लिखी गई है। यह बात इसके प्रत्येक पृष्ठ से झलकती है। इसका सब से