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समालोचना-समुच्चय

वक्तव्य बहुत ही निर्बल हो गये हैं। उनका स्वीकार करने में हृदय गवाही नहीं देता। आपकी युक्तियों से अधिक बलवती तो बाबू जगन्मोहन वर्मा की युक्तियाँ हैं, जिनके अशोक-लिपि-विषयक कितने ही लेख सरस्वती में निकल चुके हैं। लेखक महाशय की उक्तियों से तो बहुत लोगों को श्रीयुत श्यामशास्त्री जी की उक्तियाँ ही विशेष मनाग्राह्य मालूम होंगी। इस स्पष्टोक्ति के लिए, आशा है, लेखक हमें क्षमा करेंगे।

इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि अक्षर-विज्ञान के कर्ता ने अपने विषय का विशेष मनन किया है। उनकी विद्याभिरुचि और गवेषणा-शक्ति सर्वथा प्रशंसनीय है। उन्होंने यह पुस्तक लिख कर अपनी योग्यता और चिन्ता-शीलता का अच्छा परिचय दिया है। इस कारण हम साधुवाद से आपका पुनर्वार अभिनन्दन करते हैं। इमारी प्रार्थना है कि देवनागरी की उत्पत्ति और विकास का सविशेष ज्ञान रखनेवाले विद्वान् अापकी पुस्तक को मनोनिवेश पूर्वक पढ़ें और आपकी उक्तियों पर विचार करके अपनी सम्मति प्रकट करने की कृपा करें।


[ अगस्त १९१४ ]