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समालोचना-समुच्चय


सकता है। पुराणों की रचना चाहे वेदव्यास ने की हो, चाहे बादरायण ने की हो, चाहे कृष्णद्वैपायन ने की हो, चाहे और किसी ने की हो, उनका कर्त्ता आत्मदर्शी ऋषि न भी हो तो बहुत बड़ा पण्डित या ज्ञानी ज़रूर हो रहा होगा। इस दशा में पुराणोक्तियों का खण्डन करना महज़ मामूली आदमियों का काम नहीं। फिर भी यदि कोई अनधिकारी पुरुष उन उक्तियों की प्रतिकूलता करने का साहस करेगा तो उसका कथन पागल का प्रलाप समझ लेने में क्या हर्ज? अतएव कुछ कुछ इसी तरह का प्रलाप आप सुन लेने की उदारता दिखाइए। श्रीमद्भागवत के कर्ता का कहना है―

तमेव परमात्मानं जारबुद्धयापि सङ्गताः।
जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः॥

अर्थात् जारबुद्धि से भी श्रीकृष्ण परमात्मा को सङ्गति करने के कारण गोपियों के सांसारिक बन्धन क्षीण होगये और उन्होंने अपनी गुणमयी देह का त्याग कर दिया। इस पर निवेदन है कि गोपियाँ बहुत पहले ही से कृष्ण को ईश्वर, परमेश्वर, सर्वात्मा, परमात्मा कहती चली आ रही हैं। पुराणप्रणेता ने स्वयं ही उनके मुँह से ये बातें कहलाई हैं। फिर उनकी जार-बुद्धि कहाँ रही? वे तो उन्हें परमात्मा ही समझ कर, उनके पास, उनकी सेवा, अपने मनोनुकूल करने के लिए, उपस्थित हुई थीं। परमात्मा होकर भी श्रीकृष्ण जार नहीं हो सकते। श्रीमद्भागवत में उनके कर्ता ने एक नहीं, अनेक स्थलों में, श्रीकृष्ण को परमपुरुष, आदि पुरुष, परमात्मा आदि शब्दों से याद किया है। परन्तु ऐसे स्थलों में भी उसने बेचारी गोपियों को, लगे हाथ, व्यभिचारदुष्ट भी कह डालने की कृपा की है।

क्वेमाः स्त्रियो वनचरीर्व्यभिचारदुष्टाः
कृष्णे क्व चैष परमात्मनि रूढभावः।