अक्षरों को लिखने के लिए जो सांकेतिक चिन्ह बनाये गये हैं उनकी सूरतों और बनावटों से"।
इसके बाद आपने लिखा है कि भारत के प्राचीन निवासियों को लिपि-ज्ञान लाखों वर्षों से था। सूर्य सिद्धान्त के―"कल्पादस्माच मनवः षड् व्यतीताः ससन्धयः" आदि दो श्लोक उद्धृत करके आपने इस सिद्धान्त के बनने का समय इक्कीस लाख पैंसठ हज़ार वर्ष पूर्व बतलाया है!!! फिर आपने यह सम्मति दी है कि यहाँ की लिपि यहीं अाविष्कृत हुई थी। कई वर्ष पूर्व, “बार्हस्पत्य" जी ने अपने एक लेख में देवनागरी लिपि की परिणाम-दर्शक वर्णमाला का नक़शा प्रकाशित कराया था। इसी नक़शे को अक्षर-विज्ञान के कर्ता ने अपनी पुस्तक में देकर हमारी वर्तमान वर्णमाला के रूपान्तर दिखाये हैं।
पुस्तक-प्रणेता महोदय की राय है कि हमारी लिपि की उद्भावना का कारण ज्योतिषशास्त्र है। इस शास्त्र के साध्यों को सिद्ध करने के लिए तीन प्रकार के चिन्हों की आवश्यकता होती है―संख्या सम्बन्धी, दिक्सम्बन्धी और संज्ञा-सम्बन्धी।
इन तीनों चिन्हों का नाम अङ्क, रेखा और बीज पड़ा। एक दो आदि संख्यायें सूचित करानेवाले चिन्हों का नाम अङ्क; ऊपर, नीचे, सीधे, टेढ़े, गोल, त्रिकोण सूचित करानेवाले चिन्हों का नाम रेखा; और जिसको अङ्क तथा रेखा में बताया जाता है उस में, तुम, सूर्य, चन्द्र आदि के चिन्हों का नाम बीज है। x x x संसार में जितनी संज्ञा (संज्ञायें) हैं, बीजाक्षरों से लिखी जाती हैं। तात्पर्य यह कि लिपि को उत्पत्ति का कारण ज्योतिष है"।